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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेधातिथिः देवता - विष्णुः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - विष्णु सूक्त
    91

    ययो॒रोज॑सा स्कभि॒ता रजां॑सि॒ यौ वी॒र्यैर्वी॒रत॑मा॒ शवि॑ष्ठा। यौ पत्ये॑ते॒ अप्र॑तीतौ॒ सहो॑भि॒र्विष्णु॑मग॒न्वरु॑णं पू॒र्वहू॑तिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ययो॑: । ओज॑सा । स्क॒भि॒ता । रजां॑सि । यौ । वी॒र्यै᳡: । वी॒रऽत॑मा । शवि॑ष्ठा । यौ । पत्ये॑ते॒ इति॑ । अप्र॑तिऽइतौ । सह॑:ऽभि: । विष्णु॑म् । अ॒ग॒न् । वरु॑णम् । पू॒र्वऽहू॑ति: ॥२६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ययोरोजसा स्कभिता रजांसि यौ वीर्यैर्वीरतमा शविष्ठा। यौ पत्येते अप्रतीतौ सहोभिर्विष्णुमगन्वरुणं पूर्वहूतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ययो: । ओजसा । स्कभिता । रजांसि । यौ । वीर्यै: । वीरऽतमा । शविष्ठा । यौ । पत्येते इति । अप्रतिऽइतौ । सह:ऽभि: । विष्णुम् । अगन् । वरुणम् । पूर्वऽहूति: ॥२६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (ययोः) जिन दोनों के (ओजसा) बल से (रजांसि) लोक-लोकान्तर (स्कभिता) थमे हुए हैं, (यौ) जो दोनों (वीर्यैः) अपने पराक्रमों से (वीरतमा) अत्यन्त वीर और (शविष्ठा) महाबली हैं, (यौ) जो दोनों (सहोभिः) अपने बलों से (अप्रतीतौ) न रुकनेवाले होकर (पत्येते) ऐश्वर्यवान् हैं, [उन दोनों] (विष्णुम्) व्यापनशील [वा सूर्यसमान प्रतापी] राजा और (वरुणम्) श्रेष्ठ [वा जलसमान उपकारी] मन्त्री को (पूर्वहूतिः) सब लोगों का आवाहन (अगन्) पहुँचा है ॥१॥

    भावार्थ

    जहाँ पर राजा और मन्त्री बलवान् और धार्मिक होते हैं, वहाँ प्रजागण उनका सदा सन्मान करते हैं ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है। अ० ८।५९।

    टिप्पणी

    १−(ययोः) विष्णुवरुणयोः (ओजसा) बलेन (स्कभिता) स्कन्भ स्तम्भे-क्त, शेर्लोपः। स्तभितानि। दृढीकृतानि (रजांसि) लोकाः-निरु० ४।१९। (यौ) विष्णुवरुणौ (वीर्यैः) पराक्रमैः (वीरतमा) अतिशयेन वीरौ (शविष्ठा) शवः=बलम्-निघ० २।९। शवस्-इष्ठन्। विन्मतोर्लुक्। पा० ५।३।६५। विनिलोपः। अतिशवस्विनौ। बलवन्तौ (यौ) (पत्येते) पत ऐश्वर्ये। ईशाते। ऐश्वर्यं प्राप्नुतः (अप्रतीतौ) इण् गतौ-क्त। अप्रतिगतौ। अतिरस्कृतौ (सहोभिः) बलैः (विष्णुम्) अ० ३।२–०।४। व्यापनशीलं वा सूर्यवत्प्रतापिनं राजानम् (अगन्) अ० २।९।३। अगमत्। प्रापत् (वरुणम्) अ० १।३।३। श्रेष्ठं वा जलसमानोपकारिणं मन्त्रिणम् (पूर्वहूतिः) पूर्वाणां समस्तानां जनानां हूतिराह्वानम् ॥

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    विषय

    विष्णु वरुण

    पदार्थ

    १. "विष्णु' [विष् व्याप्ती] व्यापकता का प्रतीक है तथा 'वरुण' द्वेषनिवारण का। हमें चाहिए कि हम [व्यापक] उदार हृदयवाले व निढेष बनें । प्रभु में ये गुण निरपेक्षरूप में है, अत: प्रभु 'विष्णु' हैं 'वरुण' हैं। ययो:-जिन विष्णु और वरुण के (ओजसा) = बल से (रजांसि स्कभिता) = ये सब लोक थमे हुए हैं। (यौ) = जो दोनों (वीर्य:) = वीयों से वीरतमा सर्वाधिक वीर हैं, (शविष्ठा) = सर्वाधिक बली है। २. (यौ) = जो दोनों पत्येते ऐश्वर्य व सामर्थ्य को प्राप्त हैं। (सहोभि:) = अपने बलों के कारण अप्रतीतौ शत्रुओं से अनाक्रान्त हैं। उन विष्णु (वरुणम्) = विष्णु और वरुण को पूर्वहूतिः अगन्-हमारी सर्वप्रथम पुकार प्राप्त हो, हम इन विष्णु और वरुण का ही आराधन करें।

    भावार्थ

    विष्णु व वरुण की आराधना करते हुए हम 'लोकधारक, बीर, बलवान्, ऐश्वर्यशाली व शत्रुओं से अनाक्रान्त बनें।

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    भाषार्थ

    (ययोः) जिन दो के (ओजसा) ओज द्वारा (रजांसि) लोक-लोकान्तर (स्कभिता = स्कभितानि) थमे हुए हैं, (यौ) जो दो (शविष्टा = शविष्ठौ) शक्तिशाली हैं, और (वीर्येः) शक्तियों द्वारा (वीरतमा= वीरतमौ) सर्वाधिक शक्तिशाली हैं, (यौ) जो दो (पत्येते) ऐश्वर्यशाली है, (सहोभिः) अपनी-अपनी शक्तियों द्वारा (अप्रतीतौ) अज्ञायमान हैं, (विष्णुम्) रश्मियों द्वारा व्याप्त सूर्य को, (वरुणम्) और वरणीय परमेश्वर को, (पूर्वहूतिः) स्तुति में मेरा प्रथम-आह्वान (अगन्) प्राप्त हो। पत्येते= पत्यते ऐश्वर्यकर्मा (निघं० २।२१)

    टिप्पणी

    [ब्रह्माण्ड को थामने में दो मुख्य पदार्थ हैं, "वरुण परमेश्वर" (अथर्व० ४।१६।१-९), और सूर्य। ब्रह्माण्ड में सूर्य असंख्य हैं, जो कि अपने-अपने सौर मण्डल में मुख्यशक्ति रूप है। मन्त्र में "सूर्यम्” जात्येकवचन है। ये दोनों अत्यन्त शक्तिशाली हैं, अतः "वीरतमौ" हैं। ये दोनों किस प्रकार ब्रह्माण्ड को थाम रहे हैं यह यथार्थ में अप्रतीत है, अज्ञात१ है। अगन्= गमेः छान्दसे लुङि, च्लेः लुकि "मो नो धातोः" (अष्टा० ८।२।६४) इति मकारस्य नत्वे रूपम् (सायण)]। [१. जैसे दो दलों के सांमुख्य में रस्से के माध्यम द्वारा समतुलन होता है वैसे किस शक्ति द्वारा इन गतिमान् लोक-लोकान्तरों में समतुलन हो रहा है, यह वस्तुतः अज्ञात है। वैज्ञानिक कहते हैं कि इन में समतुलन ईथर द्वारा हो रहा है, जोकि कल्पना मात्र है। क्या यह इतना सुदृढ़ है जो कि लोक लोकान्तरों के पारस्परिक खिचाव में टूटता नहीं। वैदिक सिद्धान्त में इन लोक-लोकान्तरों की “विधृति" अर्थात् स्थिति परमेश्वर द्वारा हो रही है, जो परमेश्वर सूर्यों में भी व्याप्त हुआ इन का नियमन कर रहा है। यथा-'योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म (यजु० ४०।१७)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Invocation of Divinity

    Meaning

    Let the first invocation reach both Vishnu and Varuna, by whose power worlds of the universe are sustained in order, who by their might are highest and supreme over all, and who, irresistible and inviolable, with their omnipotence rule the universe.

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    Subject

    Visnuh

    Translation

    With my first prayers, I approach the sacrifice (Visnum) and the venerable Lord, with whose power these worlds are kept steady; and who are most brave and most mighty in their strength; who rule over this universe; and who are unchallengeable in their resistless might.(Also Yv. V.59)

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.26.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    Let my first praise go to Vishnu, the sun and Varuna, the air by whose mighty power these worlds are firmly established and which are very strong and most powerful with their power and which are unequalled and perform their functions harmoniously.

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    Translation

    May the morning prayer realize God's two powers of Pervasion and Excellence, which govern the universe unrestricted through might. Through these two powers, different planets are established, which are strongest and most heroic in their vigor.

    Footnote

    Which refers to powers.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(ययोः) विष्णुवरुणयोः (ओजसा) बलेन (स्कभिता) स्कन्भ स्तम्भे-क्त, शेर्लोपः। स्तभितानि। दृढीकृतानि (रजांसि) लोकाः-निरु० ४।१९। (यौ) विष्णुवरुणौ (वीर्यैः) पराक्रमैः (वीरतमा) अतिशयेन वीरौ (शविष्ठा) शवः=बलम्-निघ० २।९। शवस्-इष्ठन्। विन्मतोर्लुक्। पा० ५।३।६५। विनिलोपः। अतिशवस्विनौ। बलवन्तौ (यौ) (पत्येते) पत ऐश्वर्ये। ईशाते। ऐश्वर्यं प्राप्नुतः (अप्रतीतौ) इण् गतौ-क्त। अप्रतिगतौ। अतिरस्कृतौ (सहोभिः) बलैः (विष्णुम्) अ० ३।२–०।४। व्यापनशीलं वा सूर्यवत्प्रतापिनं राजानम् (अगन्) अ० २।९।३। अगमत्। प्रापत् (वरुणम्) अ० १।३।३। श्रेष्ठं वा जलसमानोपकारिणं मन्त्रिणम् (पूर्वहूतिः) पूर्वाणां समस्तानां जनानां हूतिराह्वानम् ॥

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