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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 57 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 57/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वामदेवः देवता - सरस्वती छन्दः - जगती सूक्तम् - सरस्वती सूक्त
    130

    यदा॒शसा॒ वद॑तो मे विचुक्षु॒भे यद्याच॑मानस्य॒ चर॑तो॒ जनाँ॒ अनु॑। यदा॒त्मनि॑ त॒न्वो मे॒ विरि॑ष्टं॒ सर॑स्वती॒ तदा पृ॑णद्घृ॒तेन॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । आ॒ऽशसा॑ । वद॑त: । मे॒ । वि॒ऽचु॒क्षु॒भे । यत् । याच॑मानस्य । चर॑त: । जना॑न् । अनु॑ । यत् । आ॒त्म्ननि॑ । त॒न्व᳡: । मे॒ । विऽरि॑ष्टम् । सर॑स्वती । तत् । आ । पृ॒ण॒त् । घृ॒तेन॑ ॥५९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदाशसा वदतो मे विचुक्षुभे यद्याचमानस्य चरतो जनाँ अनु। यदात्मनि तन्वो मे विरिष्टं सरस्वती तदा पृणद्घृतेन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । आऽशसा । वदत: । मे । विऽचुक्षुभे । यत् । याचमानस्य । चरत: । जनान् । अनु । यत् । आत्म्ननि । तन्व: । मे । विऽरिष्टम् । सरस्वती । तत् । आ । पृणत् । घृतेन ॥५९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 57; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहस्थ धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (वदतः मे) मुझ बोलनेवाले का (यत्) जो [मन] (आशसा) किसी हिंसा से (विचुक्षुभे) व्याकुल हो गया है, [अथवा] (जनान् अनु) मनुष्यों के पास (चरतः) चलकर (याचमानस्य) मुझ माँगनेवाले का (यत्) जो [मन व्याकुल हो गया है]। [अथवा] (मे तन्वः) मेरे शरीर के (आत्मनि) आत्मा में (यत् विरिष्टम्) जो कष्ट है, (सरस्वती) विज्ञानयुक्त विद्या (तत्) उसको (घृतेन) प्रकाश वा सारतत्त्व से (आ) भली-भाँति (पृणत्) भर देवे ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य अविद्या के कारण से प्राप्त हुए क्लेशों को विद्या द्वारा नाश करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(यत्) मनः (आशसा) शसु हिंसायाम् क्विप्। आशसनेन। आशा−भङ्गेन (वदतः) भाषमाणस्य (मे) मम (विचुक्षुभे) विशेषेण क्षुभितं व्याकुलं बभूव (यत्) मनः (याचमानस्य) प्रार्थयमानस्य (चरतः) गच्छतः (जनान् अनु) जनान् प्रति (यत्) (आत्मनि) स्वस्मिन् (तन्वः) शरीरस्य (मे) मम (विरिष्टम्) रिष्ट हिंसायाम्-क्त। विशेषेण क्लिष्टम् (तत्) दुःखम् (सरस्वती) वाक्-निघ० १।११। विज्ञानवती विद्या (तत्) (आ) समन्तात् (पृणत्) पृण प्रीणने-लेटि, अडागमः। पूरयेत् ॥

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    विषय

    वामदेव का अपमान-सहन

    पदार्थ

    १. जिस समय एक ब्राह्मण [संन्यासी] जनता में प्रचार करता है, तब कई बार कुछ लोकप्रवाद भी सुनने ही पड़ते हैं, अतः यह प्रार्थना करता है कि (यत्) = जब (वदतः) = जनता में प्रवचन करते हुए (आशसा) = लोगों द्वारा हिंसन से में (विचक्षभे) = मेरा मन कुछ विक्षुब्ध हो उठता है, और (यत्) = जो (जनान् अनुचरत:) = लोगों के प्रति जाते हुए और (याचमानस्य) = किन्ही कार्यविशेषों के लिए इनसे प्रार्थना करते हुए उनके न समझने से मेरा मन कुछ क्षुब्ध-सा होता है, और (यत) = जो मे (तन्व: विरिष्टम) = मेरे शरीर का हिंसन होता है. ये कुछ ईंट-रोड़ बरसा देते हैं, (तत्) = उस सबको (सरस्वती) = ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता (घृतेन आपृणत्) = ज्ञानदीप्ति व मलक्षरण द्वारा पूरित कर दे और मुझे (आत्मनि) = [स्थापयतु इति शेषः] स्वभाव में-क्षोभराहित्य स्थिति में स्थापित करे। २. ज्ञानी पुरुष लोगों में ज्ञान का प्रचार करेगा व उन्हें किन्ही कर्मों से रोकेगा तो कुछ विरोधी लोग भी उपस्थित होंगे ही। वे कुछ-न-कुछ हिंसन करेंगे ही, अपमानजनक शब्द भी बोलेंगे, चोट मारने का भी यत्न करेंगे। उस समय यह ज्ञानी पुरुष चाहता है कि ज्ञान उसे क्षुब्ध होने से बचाये। ज्ञान के कारण वह स्वस्थ स्थिति में रह सके।

    भावार्थ

    ज्ञानी पुरुष जब ज्ञान का प्रचार करते हैं, तब विरोधी लोग अपशब्द भी बोलते हैं, प्रहार भी करते हैं। ज्ञानी को चाहिए कि इन्हें सहन करता हुआ अपने कर्तव्य-कर्म में लगा रहे।

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    भाषार्थ

    (आशसा) आशापूर्वक (वदतः) [भिक्षा के लिये] बोलते हुए (यत्) जो (मे) मेरा मन (विचुक्षुभे) विक्षुब्ध हुआ है, संचलित हुआ है, (यद् याचमानस्य) तथा याचना करते हुए (जनान् अनु) जन-जन के पीछे-पीछे (चरतः) चलते हुए [मेरा मन (यत्) जो विक्षुब्ध हुआ है]। (मे) मेरी (तन्वः आत्मनि) तनू सम्बन्धी आत्मा में (यद्) जो (विरिष्टम्) चोट लगी है, (सरस्वती) ज्ञानसम्पन्ना परमेश्वरी माता (तद्) उस सब को (आ पृणत्) आपूरित कर दे, (घृतेन) जैसे कि चोट को घृत द्वारा आपूरित किया जाता है, भरा जाता है।

    टिप्पणी

    [चुक्षुभे= शुभ संचलने (भ्वादिः, दिवादिः, क्र्यादिः)। सरस्वती = सरो विज्ञानं विद्यतेऽस्यां सा सरस्वती। प्रतीत होता है कि भिक्षार्थी को किसी ने कुछ दिया नहीं, अतः उस की आत्मा में चोट लगी है, और वह पारमेश्वरी माता से तदर्थ शान्ति चाहता है]।

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    विषय

    सरस्वती रूप ईश्वर से प्रार्थना।

    भावार्थ

    (जनान्) सर्वसाधारण लोगों के (अनु) हित के लिए उनके प्रति (मे वदतो) मेरे बोलते हुए (आशसा) उन द्वारा किए गए मेरे प्रति घात-प्रतिघात, पीड़ाकारी प्रयत्न, हिंसन आदि द्वारा मेरा (यत्) जो मन (वि-चुक्षुभे) विक्षोभ या व्याकुलता को प्राप्त हो, और (जनान् अनु चरतः) लोगों के हित के लिए उनके पास जा जा कर (याचमानस्य) भिक्षा करते हुए (यत् मे वि चुक्षुभे) जो मेरा मन विक्षोभ, व्याकुलता या बेचैनी को प्राप्त हो और (मे तन्वः) मेरे शरीर में और (आत्मनि) आत्मा तथा मन में (यत् विरिष्टं) जो विशेष रूप से क्षति आई हो, चोट पहुंची हो, (सरस्वती) विद्या देवी, (वृतेन) अपने ज्ञानमय और स्नेहमय घृत = मरहम से (तत्) उस घावको (आ-पृणत्) पूरदे, भरदे, आरोग्य करदे। लोकहित के व्याख्यान देने और लोकहित के कामों में भिक्षा करने में शतशः लोकप्रवाद और दुरपवादों से जो मानस विक्षोभ, भाघात, व्यथाएं और हृदय की चोटें उत्पन्न हों उनको आन्तरिक विज्ञानमयी हृदय-देवता सरस्वती भरदे। वह ज्ञानमयी देवी परमात्मा ही है। वाक् वै सरस्वती। श० ५। ५। ४। २५॥ योषा वै सरस्वती पूषा वृषा। श० ५ । ५। १। ११॥ ऋक् सामे वै सारस्वतावुत्सौ। तै० १। ४। ४। ९॥ सरस्वतीति तद् द्वितीयं वज्ररूपम्। कौ० १२। २॥ वाणी सरस्वती है। घर की स्त्री भी सरस्वती है। ज्ञानमय प्रभु की ऋग्वेद, सामवेद ये दोनों सरस्वती के दो स्रोत हैं। सरस्वती ज्ञानमय वज्र है, वह पुष्टिकर देवी है, जो आत्मा में बल उत्पन्न करती है।

    टिप्पणी

    वाक् वै सरस्वती। श० ५। ५। ४। २५॥ योषा वै सरस्वती पूषा वृषा। श० ५ । ५। १। ११॥ ऋक् सामे वै सारस्वतावुत्सौ। तै० १। ४। ४। ९॥ सरस्वतीति तद् द्वितीयं वज्ररूपम्। कौ० १२। २॥ वाणी सरस्वती है। घर की स्त्री भी सरस्वती है। ज्ञानमय प्रभु की ऋग्वेद, सामवेद ये दोनों सरस्वती के दो स्रोत हैं। सरस्वती ज्ञानमय वज्र है, वह पुष्टिकर देवी है, जो आत्मा में बल उत्पन्न करती है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। सरस्वती देवता। जागतं छन्दः। द्वयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Inner Strength

    Meaning

    If I am agitated at heart while speaking and dealing with people with expectation, or for solicitation, or with commitment, then denied and hurt, then whatever is bruised at the core of my heart and soul, may Sarasvati repair that damage with the balmy softness of her creamy wisdom.

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    Subject

    Sarasvati

    Translation

    Whatever has got agitated in my spirit while speaking violently, or while following people as a suppliant, and whatever defect is there in my person, may the doctoress divine (Sarasvati) heal that up.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.59.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    Let the Knowledge of the Veda remove with its light whatever shakes my mind with the intention of Vengeance when I speak, whatever shakes my mind when I approach to implore amid people, and whatever harm I suffer in myself inside my body.

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    Translation

    Whatever mental trouble I feel from the violence of the people conversing with them for their welfare, whatever mental agony I sustain by going to the people again and again and imploring them for their betterment; whatever imperfection I find in my body, mind or soul, may God remove that with His wisdom and love.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(यत्) मनः (आशसा) शसु हिंसायाम् क्विप्। आशसनेन। आशा−भङ्गेन (वदतः) भाषमाणस्य (मे) मम (विचुक्षुभे) विशेषेण क्षुभितं व्याकुलं बभूव (यत्) मनः (याचमानस्य) प्रार्थयमानस्य (चरतः) गच्छतः (जनान् अनु) जनान् प्रति (यत्) (आत्मनि) स्वस्मिन् (तन्वः) शरीरस्य (मे) मम (विरिष्टम्) रिष्ट हिंसायाम्-क्त। विशेषेण क्लिष्टम् (तत्) दुःखम् (सरस्वती) वाक्-निघ० १।११। विज्ञानवती विद्या (तत्) (आ) समन्तात् (पृणत्) पृण प्रीणने-लेटि, अडागमः। पूरयेत् ॥

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