अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 89/ मन्त्र 3
ऋषिः - सिन्धुद्वीपः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दिव्यआपः सूक्त
44
इ॒दमा॑पः॒ प्र व॑हताव॒द्यं च॒ मलं॑ च॒ यत्। यच्चा॑भिदु॒द्रोहानृ॑तं॒ यच्च॑ शे॒पे अ॒भीरु॑णम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । आ॒प॒: । प्र । व॒ह॒त॒ । अ॒व॒द्यम् । च॒ । मल॑म् । च॒ । यत् । यत् । च॒ । अ॒भि॒ऽदु॒द्रोह॑ । अनृ॑तम् । यत् । च॒ । शे॒पे । अ॒भीरु॑णम् ॥९४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इदमापः प्र वहतावद्यं च मलं च यत्। यच्चाभिदुद्रोहानृतं यच्च शेपे अभीरुणम् ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । आप: । प्र । वहत । अवद्यम् । च । मलम् । च । यत् । यत् । च । अभिऽदुद्रोह । अनृतम् । यत् । च । शेपे । अभीरुणम् ॥९४.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों की संगति का उपदेश।
पदार्थ
(आपः) हे जल [के समान शुद्धि करनेवाले विद्वानो !] (इदम्) इस [सब] को (प्रवहत) बहा दो, (यत्) जो कुछ [मुझ में] (अवद्यम्) अकथनीय [निन्दनीय] (च च) और (मलम्) मलिन कर्म है। (च) और (यत्) जो कुछ (अनृतम्) झूँठ-मूँठ (अभिदुद्रोह) बुरा चीता है, (च) और (यत्) जो कुछ (अभीरुणम्) निर्भय [निरपराधी] पुरुष को (शेपे) मैंने दुर्वचन कहा है ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य शुद्धाचारी विद्वानों के सत्सङ्ग से अपने आचरण को सुधारें ॥३॥ यह मन्त्र यजुर्वेद में है−६।१७ ॥
टिप्पणी
३−(इदम्) वक्ष्यमाणम् (आपः) जलानीव शुद्धिकरा विद्वांसः (प्रवहत) अपनयत (अवद्यम्) अकथनीयं निन्द्यम् (च च) समुच्चये (मलम्) अ० २।७।१। मलिनं कर्म (यत्) यत् किञ्चित् (अभिदुद्रोह) द्रुह जिघांसायाम्-लिट्। अनिष्टं चिन्तितवानस्मि (अमृतम्) यथा तथा। असत्यम् (शेपे) शप आक्रोशे-लिट्। दुर्वचनं कथितवानस्मि (अभीरुणम्) क्षधिपिशिमिथिभ्यः कित्। उ० ३।५५। ञिभी भये-उनन्, स च कित्, रुडागमः। निर्भयम्। अनपराधिनम् ॥
विषय
'अवद्य मल' निरास
पदार्थ
१. हे (आप:) = आप्त पुरुषो! [आपो वै नरसूनवः] गतमन्त्र के देवो व ऋषियो। (इदम्) = यह (अवध च) = जो निन्दनीय, गर्झ कर्म है, (यत् च मलम्) = और मुझमें जो मलिन दुराचरण है, (अनृतम्) = जो अन्त [असत्य] है, (यत् च) = और जो (अभीरुणम्) = ऋण लेकर उसके अपलाप के लिए (शेपे) = शपथ खाता हूँ, उस सब पाप को मुझसे दूर करो।
भावार्थ
आप्त-पुरुषों के सम्पर्क में रहते हुए हम "निन्दनीय-मलिन कर्मों को, द्रोह व अनृत को तथा अपलाप को' कभी न करें।
विशेष
'अभीरुणं शेपे' का भाव 'अनपराधी को कठोर वचन कहना' भी है। यह भी अनुचित ही है।
भाषार्थ
(आपः) हे जलो ! (इदम्) इसे (प्रवहत) प्रवाहित कर दो (यत् च) जो (अवद्यम्) अकथनीय पाप (च) और जो (मलम्) शारीरिक मल या मानसिक तमोगुणरूपी मल है, (यत् च) और जो (अभिदुद्रोह) मुझ में द्रोह भावना है, और जो (अनृतम्) असत्यभाषण है उसे (यत् च) और जो (अभीरुणम्) निडर अर्थात् बहादुर व्यक्ति को (शेपे) मैंने शाप दिया है, उसे [प्रवाहित कर दो]।
टिप्पणी
["प्रवाहित" करने द्वारा नदी के प्रवाह का वर्णन अभिप्रेत है। नदी के प्रवाह में बैठकर जलचिकित्सा द्वारा पाप, मल, द्रोहभावना, असत्य भाषण, और शाप के हेतुभूत कोष, द्वेषभावना का उपचार करने का विधान हुआ है। अभीरुणम्= अनपराधिनम् (महीधर, यजु० ६।१७)। अभीरुणम् = अभीरुम्; नुमागम छान्दस। आपः द्वारा परमेश्वरार्थ में (यजु० ३२।१) तो सर्वशक्तिमान् की कृपा से सब बुराइयों का नाश होना सर्वथा सम्भव है]।
विषय
ब्रह्मचर्य पालन।
भावार्थ
जिस प्रकार जलों से मल धोकर बहा दिया जाता है उसी प्रकार हे (आपः) उत्तम ज्ञान और कर्मनिष्ठ आप्त पुरुषो ! आप लोग (इदं) यह (अवद्यम्) निन्दायोग्य मेरे अन्तःकरण के नीच-भाव और (मलं च) मैल, मलिन विचारों को (प्र वहत) बहा डालो, और अन्तःकरण को स्वच्छ कर दो। मेरे मन का अवद्य = निन्दनीय और मलिन कार्य यही है कि (यत्) जो मैं (च) प्रायः (अभि-दुद्रोह) दूसरों के प्रति द्वेष और द्रोह किया करता हूं, और (अतनृम्) असत्य भाषण करता हूं, और (यत् च) जो कुछ मैं (अभीरुणम्*) निर्भय, निरपराधी पुरुष को (शेपे) कठोर वचन कहता हूं, अथवा निर्भय होकर मैं स्वयं दूसरों को बुरा भला कहता हूं, उस मल को (आपः) आप्त वचन और आप्त पुरुष दूर करें।
टिप्पणी
‘इदमापः प्रवहत यत्किञ्च दुरितं मयि। यद्वाहमभि दुद्रोह यद्वा श उतानृतम्’। इति ऋ०॥ ‘उत्तमर्णाय देयं वस्तु ऋणमित्युच्यते तद् ऋणमभिप्राप्य’ इति सायणः। ‘अमीरुणमनपराधिनं, अनपराधी हि न बिभेति। यद्वा अभिलुनाति छिनत्ति कर्माणि यदुच्चरितं सत् तदभीरुणम्’ इति उव्वटः। ‘निर्भयः’ इति सन्दिग्धो ह्विटनिः। ‘निर्भयः’ इति दयानन्दः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सिन्धुद्वीप ऋषिः। अग्निर्देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Divine Flow of Life
Meaning
O streams of water, dynamics of nature and mind, vibrant scholars and teachers of vision, flow on and wash away all that is dirt and despicable, all that is hate, jealousy and enmity, all that is false, all that is rabid execration. Wash me of that and consecrate. Sanctify me unto a new birth.
Translation
May the waters wash away all that is dirty and filthy in me and whatever treachery and false-hood I have committed, and whatever abuse I have poured on the innocent. (Also Yv. VI.17)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.94.3AS PER THE BOOK
Translation
Let the righteous deeds and thoughts wash away the evils, whatever dirt or sot is prevalent our games, each wrong and harm curse and whatever wrong think to commit by my limb.
Translation
O Masters of Knowledge, just as waters purify us, so do ye wash away this indescribable sin and ignorance of mine. O learned persons keep me away from malice and falsehood, and accusation of the innocent.
Footnote
See Yajur, 6-17.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(इदम्) वक्ष्यमाणम् (आपः) जलानीव शुद्धिकरा विद्वांसः (प्रवहत) अपनयत (अवद्यम्) अकथनीयं निन्द्यम् (च च) समुच्चये (मलम्) अ० २।७।१। मलिनं कर्म (यत्) यत् किञ्चित् (अभिदुद्रोह) द्रुह जिघांसायाम्-लिट्। अनिष्टं चिन्तितवानस्मि (अमृतम्) यथा तथा। असत्यम् (शेपे) शप आक्रोशे-लिट्। दुर्वचनं कथितवानस्मि (अभीरुणम्) क्षधिपिशिमिथिभ्यः कित्। उ० ३।५५। ञिभी भये-उनन्, स च कित्, रुडागमः। निर्भयम्। अनपराधिनम् ॥
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