अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 97/ मन्त्र 3
यानाव॑ह उश॒तो दे॑व दे॒वांस्तान्प्रेर॑य॒ स्वे अ॑ग्ने स॒धस्थे॑। ज॑क्षि॒वांसः॑ पपि॒वांसो॒ मधू॑न्य॒स्मै ध॑त्त वसवो॒ वसू॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठयान् । आ॒ऽअव॑ह: । उ॒श॒त: । दे॒व॒ । दे॒वान् । तान् । प्र । ई॒र॒य॒ । स्वे । अ॒ग्ने॒ । स॒धऽस्थे॑ । ज॒क्षि॒ऽवांस॑: । प॒पि॒ऽवांस॑: । मधू॑नि । अ॒स्मै । ध॒त्त॒ । व॒स॒व॒: । वसू॑नि ॥१०२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यानावह उशतो देव देवांस्तान्प्रेरय स्वे अग्ने सधस्थे। जक्षिवांसः पपिवांसो मधून्यस्मै धत्त वसवो वसूनि ॥
स्वर रहित पद पाठयान् । आऽअवह: । उशत: । देव । देवान् । तान् । प्र । ईरय । स्वे । अग्ने । सधऽस्थे । जक्षिऽवांस: । पपिऽवांस: । मधूनि । अस्मै । धत्त । वसव: । वसूनि ॥१०२.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(देव) हे प्रकाशमान अध्यापक ! (यान्) जिन (उशतः) लालसावाले (देवान्) विद्वानों को (आ अवहः) तू लाया है, (अग्ने) हे विद्वान् ! (तान्) उन्हें (स्वे) अपनी (सधस्थे) बैठक में (प्र ईरय) ले चल। (वसवः) हे श्रेष्ठजनो ! तुम (मधूनि) मधुर वस्तुओं को (जक्षिवांसः) खा चुककर और (पपिवांसः) पी चुककर (अस्मै) इस पुरुष के लिये (वसूनि) उत्तम ज्ञानों को (धत्त) दान करो ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य सत्कारपूर्वक विद्वानों से शिक्षा लेकर श्रेष्ठ गुण प्राप्त करके सुखी होवें ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है ८।१९ ॥
टिप्पणी
३−(यान्) वक्ष्यमाणान् (आ अवहः) वहेर्लङ् प्रापितवानसि (उशतः) वश कान्तौ-शतृ। कामयमानान् (देव) हे प्रकाशमानाध्यापक (देवान्) विदुषः (तान्) (प्रेरय) आनय (स्वे) स्वकीये (अग्ने) विद्वन् (सधस्थे) संगतिस्थाने (जक्षिवांसः) अ० ४।७।३। भक्षितवन्तः (पपिवांसः) पिबतेः-क्वसुः। वस्वेकाजाद्घसाम्। पा० ७।२।६७। इडागमः। पीतवन्तः (मधूनि) मधुरवस्तूनि (अस्मै) विद्यार्थिने (धत्त) दत्त (वसवः) हे श्रेष्ठजनाः (वसूनि) श्रेष्ठानि ज्ञानानि ॥
विषय
अतिथियज्ञ
पदार्थ
१. हे (देव) = दिव्य गुणों से प्रकाशमय प्रभो! (यान्) = जिन (उशत: देवान् आवहः) = हमारे हित की कामनावाले देवों को आप हमारे समीप प्राप्त कराते हैं, हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (तान्) = उन्हें (स्वे सधस्थे प्रेरय) = अपने सधस्थ में-मिलकर बैठने के स्थान में प्रेरित कीजिए। वे हमारे घर को अपना ही घर समझें। उन्हें यहाँ किसी प्रकार का परायापन अनुभव न हों। २. वे देव यहाँ (जक्षिवांसः) = हव्य [पवित्र] पदार्थों को खाते हुए तथा (मधूनि पपिवांसः) = मधुर रसवाले पेय पदार्थों को पीकर आनन्द से रहें। हे (बसवः) = उत्तम निवास प्राप्त करानेवाले देवो! (अस्मै) = आपका आतिथ्य करनेवाले इस यज्ञशील यजमान के लिए (वसूनि) = ज्ञान के द्वारा निवास के लिए आवश्यक धनों को (प्रधत्त) = प्राप्त कराइए ।
भावार्थ
हे प्रभो! हमारे घरों में देववृत्ति के विद्वान् आएँ, वे इसे अपना ही घर समझें। उचित खान-पान को प्राप्त करके वे हमारे लिए वसुओं का धारण करें, ज्ञान देकर हमें वसु प्राप्ति के योग्य बनाएँ।
भाषार्थ
(अग्ने देव) हे साम्राज्य के अग्रणी देवभूत प्रधानमन्त्रिन् ! (उशतः) कामना वाले अर्थात् स्वेच्छा वाले (यान्) जिन (देवान्) गुरुदेवों को (आ अवहः) तू ने [आश्रय में] प्राप्त कराया है, नियुक्त किया है, (तान्) उन्हें (स्वे) अपने (सधस्थे) सह निवासस्थान आश्रम में (प्रेरय) निवास के लिये प्रेरित कर। (वसवः) हे वसुकोटि के गुरुओं (मधूनि) मधुर (जक्षिवांसः, पपिवांसः) भोज्यों और पेथों का खाना-पीना कर के, (वसूनि) निज ज्ञान-धन (अस्मै) इस आश्रम के लिये (धत) प्रदान करो।
टिप्पणी
[आ अवहः= लङ् लकार, वह प्रापणे (भ्वादिः)। उपतः = जिन्होंने स्वेच्छापूर्वक सेवा करना स्वीकार किया है, उन्हें। वसवः = आश्रम की स्थापना की प्रारम्भिक अवस्था में प्रविष्ट बच्चों की शिक्षा के लिये प्राथमिक कोटि के वसु-गुरुओं की ही आवश्यकता होती है, रुद्र और आदित्य कोटि के गुरुओं की नहीं। ये "वसु", विद्या, सदाचार, सत्कर्मों और योगाभ्यास की दृष्टि से ब्रह्मचर्याश्रम के लिये अधिक उपादेय हैं। इन गुरुओं के खान-पान आदि की व्यवस्था आश्रमाधीन है, जिसका कि प्रबन्ध राज्य द्वारा होने का विधान हुआ है। "सधस्थ" है सहस्थान, आश्रम; जिसमें कि गुरुदेव सहनिवास करते हैं] ।
विषय
ऋत्विजों का वरण।
भावार्थ
हे अग्ने ! अग्नि के समान दुष्टों के संतापक (देव) राजन् ! तू (उशतः) नाना पदार्थों, धन, गौ आदि पशु, आजीविका, दान दक्षिणा आदि के अभिलाषा करने वाले (यान्) जिन (देवानाम्) विद्वान् शिल्पी और गुणी विज्ञ पुरुषों को (आ-अवहः) स्वयं अपने समीप या अपने राज्य में बुलाता है (तान्) उनको (स्वे) अपने अपने (सधस्थे) संघों में रहने की (प्रेरय) प्रेरणा कर। हे (वसवः) राष्ट्र में निवास करने हारे विद्वान् शिल्पी गुणी विज्ञ पुरुषो ! तुम लोग इस राजा के राष्ट्र (जक्षि-वांसः) उत्तम अन्नों को खाते हुए और (मधूनि) मधुर दुग्ध आदि पदार्थों का (पपि वांसः) पान करते हुए (वसूनि) नाना प्रकार के वासयोग्य धन, रत्न, सुवर्ण और मकान आदि को (धत्त) स्वयं धारण करो और राजा को भी प्रदान करो।
टिप्पणी
‘यां आवहा’ (द्वि० तृ०) ‘पपिवांसश्च विश्वेऽसुं धर्म स्वरातिष्ठातऽनु’ इति यजु०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यज्ञासम्पूणकामोऽथर्वा ऋषिः। इन्द्राग्नी देवते। १-४ त्रिष्टुभः। ५ त्रिपदार्षी भुरिग् गायत्री। त्रिपात् प्राजापत्या बृहती, ७ त्रिपदा साम्नी भुरिक् जगती। ८ उपरिष्टाद् बृहती। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yajna
Meaning
O high priest of yajna, eminent and generous Agni, in this yajna hall of the assembly under your full control, inspire, lead and guide those creative and brilliant, passionately dedicated experts whom you have brought to join this programme. O Vasus, creators of wealth and knowledge for peace and progress, enjoying the honey sweets of food and drink provided for you, bear and bring valuable wealth of knowledge, power and materials for life’s excellence for this yajamana and this programme.
Translation
O adorable Lord, may you direct the desirous enlightened ones, whom you have brought, to enter your own place of sacrifice. Having eaten and drunk your fill of sweets, O bestowers of wealth, may you bestow riches on us. (Also Yv. VIII.19)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.102.3AS PER THE BOOK
Translation
O pious and learned man and King! send to their own proper places those scientists willing whom you call hither. O Vasus! (learned men living in the dominion) you eating food and drinking sweet juice grant to this man the previous wealth.
Translation
O good-natured teacher, persuade them to be religious-minded who have gathered round thee to acquire knowledge. O learned persons, taking nutritious diet drinking pure, sweet milk, impart all sorts of knowledge to this disciple.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(यान्) वक्ष्यमाणान् (आ अवहः) वहेर्लङ् प्रापितवानसि (उशतः) वश कान्तौ-शतृ। कामयमानान् (देव) हे प्रकाशमानाध्यापक (देवान्) विदुषः (तान्) (प्रेरय) आनय (स्वे) स्वकीये (अग्ने) विद्वन् (सधस्थे) संगतिस्थाने (जक्षिवांसः) अ० ४।७।३। भक्षितवन्तः (पपिवांसः) पिबतेः-क्वसुः। वस्वेकाजाद्घसाम्। पा० ७।२।६७। इडागमः। पीतवन्तः (मधूनि) मधुरवस्तूनि (अस्मै) विद्यार्थिने (धत्त) दत्त (वसवः) हे श्रेष्ठजनाः (वसूनि) श्रेष्ठानि ज्ञानानि ॥
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