ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 11/ मन्त्र 2
त्वम॑सि प्र॒शस्यो॑ वि॒दथे॑षु सहन्त्य । अग्ने॑ र॒थीर॑ध्व॒राणा॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒सि॒ । प्र॒ऽशस्यः॑ । वि॒दथे॑षु । स॒ह॒न्त्य॒ । अग्ने॑ । र॒थीः । अ॒ध्व॒राणा॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमसि प्रशस्यो विदथेषु सहन्त्य । अग्ने रथीरध्वराणाम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । असि । प्रऽशस्यः । विदथेषु । सहन्त्य । अग्ने । रथीः । अध्वराणाम् ॥ ८.११.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
विषय - पुनः परमात्मा की ही स्तुति कहते हैं ।
पदार्थ -
(सहन्त्य) हे सब पदार्थों के साथ समानगामी=हे सर्वग अन्तर्य्यामिन् (त्वम्) तू ही (विदथेषु) यज्ञों में (प्रशस्यः) प्रशंसनीय (असि) है, अन्य नहीं । (अग्ने) हे सर्वव्यापिन् देव ! (अध्वराणाम्) विद्वानों, सूर्य्यादिकों, यज्ञों तथा शुभकर्मप्रिय जनों का (रथीः) नेता तू ही है ॥२ ॥
भावार्थ - हे मनुष्यों ! सर्वत्र परमात्मा ही को पूजो, क्योंकि वही सबका नेता है ॥२ ॥
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