ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा स्मद्रा॑तिषाचो अ॒ग्नय॑: । पत्नी॑वन्तो॒ वष॑ट्कृताः ॥
स्वर सहित पद पाठवरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । स्मद्रा॑तिऽसाचः । अ॒ग्नयः॑ । पत्नी॑ऽवन्तः । वष॑ट्ऽकृटाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वरुणो मित्रो अर्यमा स्मद्रातिषाचो अग्नय: । पत्नीवन्तो वषट्कृताः ॥
स्वर रहित पद पाठवरुणः । मित्रः । अर्यमा । स्मद्रातिऽसाचः । अग्नयः । पत्नीऽवन्तः । वषट्ऽकृटाः ॥ ८.२८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 28; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
विषय - इन्द्रिय-स्वभाव दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
(वरुणः) पाशभृत् और न्याय से दण्डविधाता मानवप्रतिनिधि सम्राट् (मित्रः) सबसे स्नेहकारी ब्राह्मणदल (अर्य्यमा) वैश्यवर्ग और (स्मद्रातिषाचः) शोभन विविध दानों से पोषक जो (अग्नयः) व्यापारपरायण इतरजन, वे सब (पत्नीवन्तः) अपनी-२ पत्नी के साथ मुझसे (वषट्कृताः) वषट् शब्द द्वारा सम्मानित हुए हैं, वे सम्प्रति मुझ पर प्रसन्न होवें, यह प्रार्थना है ॥२ ॥
भावार्थ - इससे भगवान् यह शिक्षा देते हैं कि जगत् के उपकार करनेवाले सबको आदरदृष्टि से देखो और यथायोग्य उनकी पूजा शुश्रूषा करो । यद्वा−प्रथम और अन्तिम ऋचा से विस्पष्टतया विदित होता है कि यह सब वर्णन इन्द्रियों का ही है, अतः यहाँ भी वरुण आदिकों का भी तत्परक ही अर्थ करना उचित है । (मित्र) हितकारी इन्द्रिय (वरुण) वशीकृतेन्द्रिय (अर्य्यमा) गमनशीलेन्द्रिय और (अग्नयः) अग्निसमान प्रचण्ड या उपकारी इन्द्रिय (पत्नीवान्) अपनी-२ शक्तिसहित जगत् के उपकारी होवें । इत्यादि ॥२ ॥
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