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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा स्मद्रा॑तिषाचो अ॒ग्नय॑: । पत्नी॑वन्तो॒ वष॑ट्कृताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । स्मद्रा॑तिऽसाचः । अ॒ग्नयः॑ । पत्नी॑ऽवन्तः । वष॑ट्ऽकृटाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वरुणो मित्रो अर्यमा स्मद्रातिषाचो अग्नय: । पत्नीवन्तो वषट्कृताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वरुणः । मित्रः । अर्यमा । स्मद्रातिऽसाचः । अग्नयः । पत्नीऽवन्तः । वषट्ऽकृटाः ॥ ८.२८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 28; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May Varuna, the ocean, Mitra, the sun, Aryama, the cosmic law, and the vital fires with their creative energies for life sustenance, all givers of the cosmic wealth of life energy, invoked and served with yajnic food, arise, join the yajna and help us with material and spiritual fulfilment.$(At the individual level, we may interpret Varuna as our sense of justice, Mitra as our sense of love and friendship, Aryama as our sense of judgment and will, and fires as our vitalities working with our will to live.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    यावरून भगवान ही शिकवण देतो की, जगावर उपकार करणाऱ्यांनो! सर्वांना आदराच्या दृष्टीने पाहा व यथायोग्य असतील त्याची पूजा, शुश्रूषा करा. यद्वा-प्रथम व अंतिम ऋचेद्वारे स्पष्टपणे विदित होते की, हे सर्व वर्णन इन्द्रियांचेच आहे. त्यासाठी येथेही वरुण इत्यादींचा त्याप्रमाणेच अर्थ करणे योग्य आहे. (मित्र) हितकारी इन्द्रिय (वरुण) वशीकृतेन्द्रिय (अर्यमा) गमनशीलेन्द्रिय व (अग्नय:) अग्नीप्रमाणे प्रचंड किंवा उपकारी इन्द्रिय (पत्नीवान) आपापल्या शक्तिसहित जगावर उपकार करावा. ॥२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    इन्द्रियस्वभावं दर्शयति ।

    पदार्थः

    वरुणः=पाशभृद्=न्यायेन दण्डविधाता सम्राट् । मित्रः=ब्राह्मणः सर्वेषां स्नेहकारी । अर्य्यमा=वैश्यः । अपि च । स्मद्रातिषाचः=स्मद्भिः शोभनाभी रातिभिर्विविधदानैः, साचः=पोषकाः । ये अग्नयः=अङ्गनशीलाः=व्यापारपरायणा इतरे जनाः सन्ति । ते सर्वे । पत्नीवन्तः=स्वया स्वया पत्न्या सह । मया । वषट्कृताः=वषट्शब्देन आदृता बभूवुः । ते सम्प्रति मयि प्रसन्ना भवन्तु इति प्रार्थना ॥२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    इन्द्रिय-स्वभाव दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (वरुणः) पाशभृत् और न्याय से दण्डविधाता मानवप्रतिनिधि सम्राट् (मित्रः) सबसे स्नेहकारी ब्राह्मणदल (अर्य्यमा) वैश्यवर्ग और (स्मद्रातिषाचः) शोभन विविध दानों से पोषक जो (अग्नयः) व्यापारपरायण इतरजन, वे सब (पत्नीवन्तः) अपनी-२ पत्नी के साथ मुझसे (वषट्कृताः) वषट् शब्द द्वारा सम्मानित हुए हैं, वे सम्प्रति मुझ पर प्रसन्न होवें, यह प्रार्थना है ॥२ ॥

    भावार्थ

    इससे भगवान् यह शिक्षा देते हैं कि जगत् के उपकार करनेवाले सबको आदरदृष्टि से देखो और यथायोग्य उनकी पूजा शुश्रूषा करो । यद्वा−प्रथम और अन्तिम ऋचा से विस्पष्टतया विदित होता है कि यह सब वर्णन इन्द्रियों का ही है, अतः यहाँ भी वरुण आदिकों का भी तत्परक ही अर्थ करना उचित है । (मित्र) हितकारी इन्द्रिय (वरुण) वशीकृतेन्द्रिय (अर्य्यमा) गमनशीलेन्द्रिय और (अग्नयः) अग्निसमान प्रचण्ड या उपकारी इन्द्रिय (पत्नीवान्) अपनी-२ शक्तिसहित जगत् के उपकारी होवें । इत्यादि ॥२ ॥

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    विषय

    राष्ट्र के ३३ प्रमुख शासक।

    भावार्थ

    ( वरुणः ) दुष्टों को वारण करने वाला और सज्जनों से वरण करने योग्य ( मित्र: ) और सर्वस्नेही, ( अर्यमा ) दुष्टों को दमन करने वाला न्यायकारी जन ये तीनों ( अग्नयः ) अग्रणी, प्रधान तेजस्वी पुरुष ( स्मत-राति-षाचः ) उत्तम कर वेतनादि धन का सेवन करने वाले और ( पत्नी-वन्तः ) प्रजापालक शक्ति और नीति से युक्त होकर ( वषट्-कृताः ) उत्तम सत्कार से युक्त हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २ गायत्री। ३, ५, विराड् गायत्री। ४ विराडुष्णिक्॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    कैसे बनें ?

    पदार्थ

    [१] (वरुणः) = द्वेष निवारण की देवता, (मित्रः) = स्नेह की देवता, (अर्यमा) = [ अरीन् यच्छति] काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं के नियमन की देवता, (स्मद् रातिषाचः) = शोभन [ स्मत् सुमत् राति, येषां तान् सचन्ते] दानवाले यज्ञशील पुरुषों के साथ सम्बद्ध (अग्नयः) = 'गार्हपत्य, आहवनीय व दक्षिणाग्नि' रूप अग्नियाँ। ये सब देव (पत्नीवन्तः) = पत्नियोंवाले होते हुए (वषट्कृताः) = हमारे से आदर दिये गये हैं, इनके प्रति हमने अपना अर्पण किया है। [२] देवों की शक्तियाँ ही देव पत्नियाँ हैं। इनके प्रति हम अपना अर्पण करें, इन्हें अपने में धारण करने के लिये यत्नशील हों। हम वरुण बनें, अर्थात् निर्देषता को धारण करें। हम मित्र बनें, स्नेह को धारण करें। अर्यमा बनते हुए काम- क्रोध-लोभ का नियमन करें। यज्ञशीलों को धनों को प्रदान करनेवाली यज्ञाग्नियों का सेवन करें। सब देवपत्त्रियों को आदर देनेवाले होते हुए इन देवों की शक्तियों को धारण करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम निर्दोष, स्नेही, शत्रुनियन्ता, यज्ञशील व देवशक्तियों को धारण करनेवाले बनें।

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