ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 28/ मन्त्र 4
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराडुष्निक्
स्वरः - ऋषभः
यथा॒ वश॑न्ति दे॒वास्तथेद॑स॒त्तदे॑षां॒ नकि॒रा मि॑नत् । अरा॑वा च॒न मर्त्य॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । वश॑न्ति । दे॒वाः । तथा॑ । इत् । अ॒स॒त् । तत् । ए॒षा॒म् । नकिः॑ । आ । मि॒न॒त् । अरा॑वा । च॒न । मर्त्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा वशन्ति देवास्तथेदसत्तदेषां नकिरा मिनत् । अरावा चन मर्त्य: ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । वशन्ति । देवाः । तथा । इत् । असत् । तत् । एषाम् । नकिः । आ । मिनत् । अरावा । चन । मर्त्यः ॥ ८.२८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 28; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 35; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 35; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Whatever these bounties of divine nature wish and desire, the same does come about. No one can resist them, no uncharitable person can move them either.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्याच्या मृत्यूनंतर यश, कीर्ती व एखादी चिरस्थायी वस्तू राहत नाही तो मर्त्य होय. कारण त्याचे कोणतेही स्मारक नसते. ज्यांचे काही स्मारक उरते ते देव असतात. त्यासाठी देव बनण्याचा सर्वांनी प्रयत्न करावा. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
कर्त्तव्यमाह ।
पदार्थः
देवाः=सत्यसंकल्पाः=सत्यासक्ताः परोपकारिणः स्वार्थविरहिता विद्वांसो मनुष्याः । यथा+वशन्ति=यथा इच्छन्ति । तथा+इत्=तथैव । असत्=अस्ति=भवति । यद् देवा इच्छन्ति तद् भवत्येवेत्यर्थः । “वश कान्तौ” । तदेवाह−एषाम्=देवानाम् । तत्कामनम् । न किः=न कश्चिदपि । मिनत्=हिनस्ति= निवारयति । “मीङ् हिंसायाम्” लेटि रूपम् । न तथा इतरो मनुष्यो भवतीत्याह । चन=निश्चये । यताः । मर्त्यः=मरणधर्मा । चन=निश्चयेन । अरावा=अदाता भवति । स खलु मूर्खो न ददाति, न जुहोति, न तपस्यति, न च किमपि शुभमाचरति । अतः सः । असत्यसंकल्पत्वाद् देववन्न भवति ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
कर्त्तव्य कहते हैं ।
पदार्थ
(देवाः) सत्यसंकल्प, सत्यासक्त, परोपकारी, सर्वथा स्वार्थविरहित विद्वान् जन (यथा+वशन्ति) जैसा चाहते हैं, (तथा+इत्) वैसा ही (असत्) होता है, क्योंकि (एषाम्) इन विद्वद्देवों की (तत्) उस कामना को (नकिः) कोई नहीं (मिनत्) हिंसित=निवारित कर सकता । परन्तु इतर मनुष्य वैसा नहीं होता है, क्योंकि वह (अरावा) अदाता होता है वह मूर्ख न देता, न होमता, न तपता, न कोई शुभकर्म ही करता, अतएव वह (मर्त्यः) इतरजन मर्त्य है अर्थात् अविनाशी यश का वह उपार्जन नहीं करता, इससे वह मर्त्यः=मरणधर्मा है और असत्यसंकल्प है । इससे यह शिक्षा मिलती है कि मनुष्य शुभकर्मों को करके देव बने ॥४ ॥
भावार्थ
जो अपने पीछे यश, कीर्ति और कोई चिरस्थायी वस्तु को छोड़नेवाला नहीं है, वही मर्त्य है, क्योंकि उसका कोई स्मारक नहीं रहता । जिनके स्मारक कुछ रह जाते हैं, वे ही देव हैं, अतः देव बनने के लिये सब प्रयत्न करें ॥४ ॥
विषय
तीन प्रधान पद।
भावार्थ
( देवाः यथा वशन्ति ) विद्वान्, तेजस्वी, उत्तम जन जैसा चाहते हैं ( तेषां ) उनकी वह इच्छा ( तथा इत् असत् ) वैसी ही सफल होती है, ( मर्त्यः अरावा चन ) अदानशील, मूर्ख मनुष्य ( तेषां नकिः आमिनत् ) उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २ गायत्री। ३, ५, विराड् गायत्री। ४ विराडुष्णिक्॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
देवों का चाहना और वैसा हो जाना
पदार्थ
[१] (देवाः) = देववृत्ति के पुरुष (यथा वशन्ति) = जैसा चाहते हैं तथा (इत् असत्) = वैसा ही हो जाता है। (तेषाम्) = उनकी (तत्) = उस कामना को (नकिः आमिनत्) = कोई भी हिंसित नहीं कर पाता । [२] (अरावा चन) = अदानशील भी (मर्त्यः) = मनुष्य देवों की कामना होने पर हवि को देता ही है।
भावार्थ
भावार्थ- देववृत्ति के पुरुष जैसा चाहते हैं वैसा ही हो जाता है, उनकी कामना को कोई हिंसित नहीं कर पाता। कृपण से कृपण व्यक्ति भी उनके कहने पर हवि को देता ही है।
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