अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 37
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - विराड्जगती
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
येन॑ दे॒वा ज्योति॑षा॒ द्यामु॒दाय॑न्ब्रह्मौद॒नं प॒क्त्वा सु॑कृ॒तस्य॑ लो॒कम्। तेन॑ गेष्म सुकृ॒तस्य॑ लो॒कं स्वरा॒रोह॑न्तो अ॒भि नाक॑मुत्त॒मम् ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । दे॒वा: । ज्योति॑षा । द्याम् । उ॒त्ऽआय॑न् । ब्र॒ह्म॒ऽओ॒द॒नम् । प॒क्त्वा । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् । तेन॑ । गे॒ष्म॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् । स्व॑: । आ॒ऽरोह॑न्त: । अ॒भि । नाक॑म् । उ॒त्ऽत॒मम् ॥१.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
येन देवा ज्योतिषा द्यामुदायन्ब्रह्मौदनं पक्त्वा सुकृतस्य लोकम्। तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं स्वरारोहन्तो अभि नाकमुत्तमम् ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । देवा: । ज्योतिषा । द्याम् । उत्ऽआयन् । ब्रह्मऽओदनम् । पक्त्वा । सुऽकृतस्य । लोकम् । तेन । गेष्म । सुऽकृतस्य । लोकम् । स्व: । आऽरोहन्त: । अभि । नाकम् । उत्ऽतमम् ॥१.३७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 37
भाषार्थ -
(देवाः) दिव्यगुणी लोग (येन ज्योतिषा) जिस ज्योति के द्वारा, (याम्) द्युलोक या शिरःस्थ सहस्रारचक्र पर (उदायन्) चढ़े हैं, और (ब्रह्मोदनम्) ब्रह्म के प्रसादन के लिये वेदवेत्ताओं और ब्रह्मज्ञों को देय ओदन को अथवा ब्रह्मरूपी-ओदन (अथर्व० ११।३) को (पक्त्वा) अग्नि परिपाक कर के, तथा जीवन में परिपक्व कर के (सुकृतस्य लोकम्) सुकर्मियों द्वारा प्रापणीय सहस्रार चक्र रूप लोक को या ब्राह्मी-आलोक को प्राप्त हुए हैं, (तेन) उस ज्योति द्वारा (सुकृतस्य लोकम्) सुकर्मियों के इस लोक को (गेष्म) हम प्राप्त हों, अर्थात् (स्वः आरोहन्तः) "स्वः" पर आरोहण कर के, अर्थात् हृदय में परमेश्वर का दर्शन कर के (उत्तमम् नाकम् अभि) उत्तम नाक की ओर हम जांय, या उस को प्राप्त करें। नाकम्= गेष्म दुःख के संस्पर्श से रहित आनन्दमय परमेश्वर को हम प्राप्त करें।
टिप्पणी -
[ज्योतिषा= सम्भवतः “ऋतम्भरा प्रज्ञा" अथवा "विवेकजज्ञान” (योग १।४६; ३।४९,५४)। द्याम्= शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत" (यजु० ३१।१३); "दिवं यश्चक्रे मूर्धानम्" (अथर्व० १०।७।३२), अर्थात् आध्यात्मिकार्थ में "द्योः या दिव्" हैं शिरः या मूर्धा। ब्रह्मौदनम्= इस के यथा लिखित दो अर्थ है-यह काण्ड ११ । सूक्त १ में स्पष्टतया वर्णित है। "ब्रह्मरूपी ओदन" इस अर्थ में ब्रह्म को "सुकृतस्यलोकम्" कहना यथार्थ प्रतीत होता हैं। मन्त्र के उत्तरार्ध में "सुकृतस्यलोकम्" "उत्तम-नाकम्" एकाभिप्रायक प्रतीत होते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि में "स्व" शब्द हृदयस्थ कोश का भी वाचक है। यथा- "अष्टचक्रा नव द्वारा देवानां पूरयोध्या। तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषाबृत:" (अथर्व० १०।२।३१)। हृदयस्थ "हिरण्यय कोश" पारमेश्वरी ज्योति से आवृत रहता है। हिरण्यय-कोश में परमेश्वर का प्रथम दर्शन होता है। इस के पश्चात् शिरःस्थ सहस्रार चक्र में स्थित "नाक" अर्थात् आनन्दमय ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। हृदय से सहस्रारचक्र में आरोहण करना, “स्वः” से “उत्तमनाक" तक आरोहण करना है। ब्रह्मौदनम्= मन्त्र ३७ के अनुसार "ब्रह्मौदन को पका कर" नाक अर्थात् मोक्ष या ब्रह्म को प्राप्त करने का कथन हुआ है। ब्रह्मज्ञों तथा वेदज्ञों को पकाया-ओदन देने मात्र से मोक्ष या ब्रह्म की प्राप्ति हो जाय, यह तो बुद्धिग्राह्य नहीं। इसलिये “ब्रह्मौदन" पद में "ब्रह्मप्रसादनार्थ" या ब्रह्मार्पण करके यह भावना अन्तर्निहित है। इस भावनानुसार ब्रह्मज्ञों और वेदज्ञों को दिया ओदन-योगशास्त्रोक्त “क्रियायोग" का अङ्ग हो जाता है, अर्थात् "ईश्वर प्रणिधान" हो जाता है। यथा "तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः" (योग २।१)। इस की व्याख्या में व्यासमुनि लिखते हैं कि "ईश्वर प्रणिधानं सर्वक्रियाणां परमगुरावर्पणं, तत्फलसन्न्यासो वा", अर्थात् सब क्रियाओं का परमगुरु परमेश्वर के प्रति अर्पण, अथवा उन कर्मों के फल की अभिलाषा न करते हुए उन्हें करना"। इस से समाधि की प्राप्ति होती तथा पञ्चक्लेश (योग० २।३) सूक्ष्म पड़ जाते हैं। तथा "समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्” (योग २।४५) पर व्यासमुनि पुनः कहते हैं कि "ईश्वरार्पितसर्वभावस्य समाधिसिद्धिः" अर्थात् ईश्वर के प्रति जिस ने अपने सब भावों को अर्पित कर दिया है, उसे समाधि सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार "ब्रह्मौदनं पक्त्वा" (३७) में, तथा इस से पूर्व के मन्त्रों में यदि "ब्रह्म के प्रसादनार्थ" इस भावना को अन्तर्हित माना जाय तो "यज्ञनामक ब्रह्म" की प्राप्ति भी सम्भव हो जाती है (३६), तथा नाक अर्थात् मोक्ष की सिद्धि भी हो जाती है (३७)। या मन्त्र ३६,३७ में, "ब्रह्मौदनम्" का अर्थ "ब्रह्म-रूपी-ओदन" जानना चाहिये। "ब्रह्मौदन" की विस्तृत व्याख्या काण्ड ११ । सूक्त ३ में की गई है।]