अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 18/ मन्त्र 5
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - साम्नी उष्णिक्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
अह्ना॑प्र॒त्यङ्व्रात्यो॒ रात्र्या॒ प्राङ्नमो॒ व्रात्या॑य ॥
स्वर सहित पद पाठअह्ना॑ । प्र॒त्यङ् । व्रात्य॑: । रात्र्या॑ । प्राङ् । नम॑: । व्रात्या॑य ॥१८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अह्नाप्रत्यङ्व्रात्यो रात्र्या प्राङ्नमो व्रात्याय ॥
स्वर रहित पद पाठअह्ना । प्रत्यङ् । व्रात्य: । रात्र्या । प्राङ् । नम: । व्रात्याय ॥१८.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 18; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(अह्ना) दिन में (व्रात्यः) व्रात्य (प्रत्यङ्) पश्चिम की ओर (रात्र्या) रात्रि में (आङ्) पूर्व को ओर गति करता है, (व्रात्याय) व्रात्य के लिए (नमः) नमस्कार हो।
टिप्पणी -
[मन्त्र ४ और ५ में आदित्य के वर्णन द्वारा, आदित्य का तथा आदित्य के अधिष्ठाता परमेश्वर का ग्रहण होता है। दिन के समय, आदित्य की उपस्थिति में, नासिका के दाहिने छिद्र द्वारा श्वास प्रश्वास चलना चाहिये, और रात्रिकाल में, आदित्य की अनुपस्थिति में, नासिका के बांएं छिद्र द्वारा श्वास प्रश्वास चलना चाहिए। यह स्वास्थ्य का चिह्न है। श्वास-प्रश्वास की इस से विपरीत गति रोग का चिह्न है। इस प्रकार श्वास-प्रश्वास को अहोरात्र कहा है। चूंकि श्वास-प्रश्वास का सम्बन्ध अहोरात्र के साथ है, तथा इन का सम्बन्ध नासिका के दो छिद्रों के भी साथ है, अतः परम्परया१ नासिका के छिद्रों का अहोरात्र के साथ सम्बन्ध, और तदद्वारा आदित्य का सम्बन्ध नासिका के दो छिद्रों के साथ भी, मन्त्र में दर्शाया है। दाएं नासिका छिद्र से चलने वाले श्वास-प्रश्वास को सूर्य स्वर तथा बाएं से चलने वाले को चन्द्र-स्वर कहते हैं। ये स्वर अहोरात्र में कई बार वारीवारी से बदलते रहते है। "हठयोग प्रदीपिका" आदि में इन गतियों का वर्णन है। मन्त्र में संवत्सर को आदित्य का तथा आदित्यस्थ पुरुष का सिर कहा है। आदित्य का संचालन कालाधीन है। यथा "कालेनोदेति सूर्यः काले निविशते पुनः" (अथर्व० १९।५४।१)। काल की इकाई संवत्सर है। क्योंकि प्रतिसंवत्सर की समाप्ति पर ऋतुएं तथा मास आदि पुनः पूर्ववत् चक्कर काटने लगते हैं। जैसे सिर के आश्रय समस्त शरीर अबलम्बित है, वैसे संवत्सर के आश्रय दिन-रात, मास तथा ऋतुएं अवलम्बित है। इसलिये संवत्सर को व्रात्य अर्थात आदित्य का, या आदित्यस्थ पुरुष का "शिर" कहा है। इस संवत्सर के दो बिभाग हैं, उत्तरायण तथा दक्षिणायन। ये दो मानो संवत्सर रूपी शिरः (सिर) के दो कपाल है, खोपड़ी के भी दो खण्ड है। इन में से उत्तरायण-भाग या खण्ड को अदिति कहा है, और दक्षिणायन-भाग या खण्ड को दिति कहा है। अदिति का सम्बन्ध है आदित्य से, और दिति का दैत्य से। उत्तरायण का सूर्य आदित्य है, और दक्षिणायन का सूर्य दैत्य है जो कि उत्तर भाग के ताप और प्रकाश को हर लेता है। दक्षिण भाग को असुर-भाग भी कहते हैं, तथा उत्तरभाग को देवभाग। दिन के समय व्रात्य-आदित्य पूर्व से पश्चिम की ओर गति करता है, और रात्रि के समय पश्चिम से पूर्व की ओर गति करता हुआ प्रातः काल पुनः पूर्व में उदित होता है, व्रात-आदित्य रथ है, आदित्य पुरुष का। मानो आदित्य-पुरुष, आदित्य-रथ द्वारा दिन-रात गति करता रहता है। व्रात्य-आदित्य की गति द्वारा व्रात्य-आदित्य-पुरुष की गति का औपचारिक वर्णन अभिप्रेत है, इसलिये व्रतपति तथा प्राणिवर्गों के हितकारी आदित्य-पुरुष को "नमः" द्वारा नमस्कार किया है। "योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं व्रह्म" (यजु० ४०।१८)। मन्त्र में जड़-आदित्य को नमस्कार नहीं किया।] [१. नासिका के दो छिद्रों का श्वास-प्रश्वास के साथ सम्बन्ध, श्वास प्रश्वास का अहोरात्र के साथ, तथा अहोरात्र का व्रात्य-आदित्य के साथ, तथा व्रात्य-आदित्य का आदित्य-पुरुष के साथ सम्बन्ध है। "सूर्य व्रतपते व्रतं चरिष्यामि" (गोभिल २।१०।१६) द्वारा सूर्य भी व्रतपति होने से व्रात्य है।]