अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
स॑हस्रा॒र्घः श॒तका॑ण्डः॒ पय॑स्वान॒पाम॒ग्निर्वी॒रुधां॑ राज॒सूय॑म्। स नो॒ऽयं द॒र्भः परि॑ पातु वि॒श्वतो॑ दे॒वो म॒णिरायु॑षा॒ सं सृ॑जाति नः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒ह॒स्र॒ऽअ॒र्घः। श॒तऽका॑ण्डः। पय॑स्वान्। अ॒पाम्। अ॒ग्निः। वी॒रुधा॑म्। रा॒ज॒ऽसूय॑म्। सः। नः॒। अ॒यम्। द॒र्भः। परि॑। पा॒तु॒। वि॒श्वतः॑। दे॒वः। म॒णिः। आयु॑षा। सम्। सृ॒जा॒ति॒। नः॒ ॥३३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्रार्घः शतकाण्डः पयस्वानपामग्निर्वीरुधां राजसूयम्। स नोऽयं दर्भः परि पातु विश्वतो देवो मणिरायुषा सं सृजाति नः ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽअर्घः। शतऽकाण्डः। पयस्वान्। अपाम्। अग्निः। वीरुधाम्। राजऽसूयम्। सः। नः। अयम्। दर्भः। परि। पातु। विश्वतः। देवः। मणिः। आयुषा। सम्। सृजाति। नः ॥३३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(सहस्रार्घः) हजारों द्वारा पूजनीय या महामूल्यरत्न, (शतकाण्डः) सैकड़ों द्वारा काम्य अर्थात् चाहा गया, (पयस्वान्) आनन्दरस से नित्य सम्बद्ध, (अपाम् अग्निः) जलसम्बन्धी विद्युदग्नि के सदृश जाज्वल्यमान, (विरुधाम्) रोगविरोधी ओषधियों का (राजसूयम्) सम्राट्, अर्थात् महौषधरूप (सः अयम्) यह वह (दर्भः) अविद्यादिविदारक परमेश्वर (नः) हमारी (विश्वतः) सब ओर से (परि पातु) परिपालना करे। (देवः मणि) दिव्यरत्न परमेश्वर (नः) हमें (आयुषा) स्वस्थ और दीर्घ आयु के साथ (सं सृजाति) सम्बद्ध करे।
टिप्पणी -
[काण्डः= काम्यते जनैः (उणा० १.११५)। पयस्वान्, पयः=रस। यथा— “पयस्वतीरोषधयः पयस्वन्मामकं वचः” (अथर्व० ३.२४.१), अर्थात् ओषधियाँ रसवाली हों, मेरी वाणी रस वाली हो। राजसूयम्= सम्राट्; लक्षणया। दर्भः=दॄ विदारणे।]