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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 33

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 33/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृगुः देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः सूक्तम् - दर्भ सूक्त

    त्वं भू॑मि॒मत्ये॒ष्योज॑सा॒ त्वं वेद्यां॑ सीदसि॒ चारु॑रध्व॒रे। त्वां प॒वित्र॒मृष॑योऽभरन्त॒ त्वं पु॑नीहि दुरि॒तान्य॒स्मत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। भूमि॑म्। अति॑। ए॒षि॒। ओज॑सा। त्वम्। वेद्या॑म्। सी॒द॒सि॒। चारुः॑। अ॒ध्व॒रे। त्वाम्। प॒वित्र॑म्। ऋष॑यः। अ॒भ॒र॒न्त॒। त्वम्। पु॒नी॒हि॒। दुः॒ऽइ॒तानि॑। अ॒स्मत् ॥३३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं भूमिमत्येष्योजसा त्वं वेद्यां सीदसि चारुरध्वरे। त्वां पवित्रमृषयोऽभरन्त त्वं पुनीहि दुरितान्यस्मत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। भूमिम्। अति। एषि। ओजसा। त्वम्। वेद्याम्। सीदसि। चारुः। अध्वरे। त्वाम्। पवित्रम्। ऋषयः। अभरन्त। त्वम्। पुनीहि। दुःऽइतानि। अस्मत् ॥३३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 33; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    हे परमेश्वर! (त्वम्) आप (ओजसा) निज ओज के कारण (भूमिम् अति) भूमि का अतिक्रमण करके समस्त जगत् में (एषि) व्याप्त हैं। (अध्वरे) हिंसारहित यज्ञ में (त्वम्) आप (चारुः) शोभायमान होते हुए (वेद्याम्) यज्ञवेदि में (सीदसि) अग्नि में प्रविष्ट हुए स्थित होते हैं। (ऋषयः) ऋषिलोग (त्वां पवित्रम्) आप पवित्र को (अभरन्त) हृदयों में धारण करते हैं। (त्वम्) आप (अस्मत्) हम से (दुरितानि) दुष्कर्मों को हटाकर (पुनीहि) हमें पवित्र कीजिए।

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