अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 34/ मन्त्र 6
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त
त्रिष्ट्वा॑ दे॒वा अ॑जनय॒न्निष्ठि॑तं॒ भूम्या॒मधि॑। तमु॒ त्वाङ्गि॑रा॒ इति॑ ब्राह्म॒णाः पू॒र्व्या वि॑दुः ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिः। त्वा॒। दे॒वाः। अ॒ज॒न॒य॒न्। निऽस्थि॑तम्। भूम्या॑म्। अधि॑। तम्। ऊं॒ इति॑। त्वा॒। अङ्गि॑राः। इति॑। ब्रा॒ह्म॒णाः। पू॒र्व्याः। वि॒दुः॒ ॥३४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिष्ट्वा देवा अजनयन्निष्ठितं भूम्यामधि। तमु त्वाङ्गिरा इति ब्राह्मणाः पूर्व्या विदुः ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिः। त्वा। देवाः। अजनयन्। निऽस्थितम्। भूम्याम्। अधि। तम्। ऊं इति। त्वा। अङ्गिराः। इति। ब्राह्मणाः। पूर्व्याः। विदुः ॥३४.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
हे जङ्गिड औषध! (भूम्याम् अधि) भूमि में (निष्ठितम्) स्थित (त्वा) तुझे (देवाः) औषधवेत्ता विद्वान्, (त्रिः) वर्ष में तीन बार (अजनयन्) उपजाते हैं। (पूर्व्याः) औषधविज्ञान के पूर्णवेत्ता (ब्राह्मणाः) वैदिक विद्वान्, (तम् उ त्वा) हे जङ्गिड! उस तुझे को, (अङ्गिराः इति) अङ्गिरा नाम से (विदुः) जानते हैं।
टिप्पणी -
[देवाः= विद्वांसो वै देवाः (श० ब्रा० ३.७.३.१०)। पूर्व्याः= पुर्व पूरणे। ब्राह्मणाः=ब्रह्म (वेदः) तज्ज्ञाः। अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं। यथा—“तमृचः सामानि च यजूंषि ब्रह्म चानुव्यचलन्” (अथर्व० १५.६.८)। तथा ब्रह्म का अर्थ “मन्त्र” भी होता है। जङ्गिड को “अंगिराः” कहा है, क्योंकि यह कृषिजन्य ओषधियों के अङ्गों का रसरूप है, देखो—अथर्व० १९.३४.१ की व्याख्या। अङ्गिराः=अङ्गानां रसः।]