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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 46

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 46/ मन्त्र 3
    सूक्त - प्रजापतिः देवता - अस्तृतमणिः छन्दः - पञ्चपदा पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - अस्तृतमणि सूक्त

    श॒तं च॑ न प्र॒हर॑न्तो नि॒घ्नन्तो॒ न त॑स्ति॒रे। तस्मि॒न्निन्द्रः॒ पर्य॑दत्त॒ चक्षुः॑ प्रा॒णमथो॒ बल॒मस्तृ॑तस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तम्। च॒। न। प्र॒ऽहर॑न्तः। नि॒ऽघ्नन्तः॑। न। त॒स्ति॒रे। तस्म‍ि॑न्। इन्द्रः॑। परि॑। अ॒द॒त्त॒। चक्षुः॑। प्रा॒णम्। अथो॒ इति॑। बल॑म्। अस्तृ॑तः। त्वा॒। अ॒भि। र॒क्ष॒तु॒ ॥४६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतं च न प्रहरन्तो निघ्नन्तो न तस्तिरे। तस्मिन्निन्द्रः पर्यदत्त चक्षुः प्राणमथो बलमस्तृतस्त्वाभि रक्षतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतम्। च। न। प्रऽहरन्तः। निऽघ्नन्तः। न। तस्तिरे। तस्म‍िन्। इन्द्रः। परि। अदत्त। चक्षुः। प्राणम्। अथो इति। बलम्। अस्तृतः। त्वा। अभि। रक्षतु ॥४६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 46; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    हे माण्डलिक राजन्! (प्रहरन्तः) प्रहार करने वाले (शतम्) सैकड़ों सैनिक (न तस्तिरे) आपका वध नहीं कर सकते। (च) और (निघ्नन्तः) हनन करनेवाले सैकड़ों सैनिक (न) आपका वध नहीं कर सकते। (तस्मिन्) उस आप में (इन्द्रः) महाशासक सम्राट् ने (चक्षुः) नई दृष्टि, (प्राणम्) नई प्राणशक्ति, (अथो) और (बलम्) नया बल (पर्यदत्त) प्रदान किया है। (अस्तृतः) अपराजित महाशासक सम्राट् (त्वा) आपको (अभि) सब ओर से (रक्षतु) सुरक्षित करे।

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