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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 62/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्वप्रिय सूक्त
प्रि॒यं मा॑ कृणु दे॒वेषु॑ प्रि॒यं राज॑सु मा कृणु। प्रि॒यं सर्व॑स्य॒ पश्य॑त उ॒त शू॒द्र उ॒तार्ये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्रि॒यम्। मा॒। कृ॒णु॒। दे॒वेषु॑। प्रि॒यम्। राज॑ऽसु। मा॒। कृ॒णु॒। प्रि॒यम्। सर्व॑स्य। पश्य॑त। उ॒त। शू॒द्रे। उ॒त। आर्ये॑ ॥६२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रियं मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु। प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये ॥
स्वर रहित पद पाठप्रियम्। मा। कृणु। देवेषु। प्रियम्। राजऽसु। मा। कृणु। प्रियम्। सर्वस्य। पश्यत। उत। शूद्रे। उत। आर्ये ॥६२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 62; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
हे परमेश्वर! (देवेषु) दिव्यगुणी ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणों में (मा) मुझे (प्रियं कृणु) प्रिय कीजिये। (राजसु) राजाओं तथा क्षत्रियों में (मा) मुझे (प्रियं कृणु) प्रिय कीजिये। (उत) और (शूद्रे) शूद्रों में, (उत) तथा (आर्ये=अर्ये) श्रेष्ठ आचरण वाले वैश्यों में, और (पश्यतः) देखने सुननेवाले (सर्वस्य) सब प्राणियों का (प्रियम्) प्रिय मुझे कीजिये।
टिप्पणी -
[मन्त्र में सर्वभूतमैत्री की भावना ओतप्रोत है। देवेषु= ब्राह्मण को “भूदेवाः” भी कहते हैं। शूद्रे=शु (आशु) द्रवति कार्येषु इति शूद्रः=स्वस्थ शरीर होने के कारण शिल्प आदि कार्यों में शीघ्रतापूर्वक काम करनेवाले। आर्ये= अर्ये=आर्य (श्रेष्ठ), अर्य=स्वामी और वैश्य।]