अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
सूक्त - गार्ग्यः
देवता - नक्षत्राणि
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त
सु॒हव॑मग्ने॒ कृत्ति॑का॒ रोहि॑णी॒ चास्तु॑ भ॒द्रं मृ॒गशि॑रः॒ शमा॒र्द्रा। पुन॑र्वसू सू॒नृता॒ चारु॒ पुष्यो॑ भा॒नुरा॑श्ले॒षा अय॑नं म॒घा मे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽहव॑म्। अ॒ग्ने॒। कृत्ति॑काः। रोहि॑णी। च॒। अस्तु॒॑। भ॒द्रम्। मृ॒गऽशि॑रः। शम्। आ॒र्द्रा। पुन॑र्वसु॒ इति॑ पुनः॑ऽवसू। सू॒नृता॑। चारु॑। पुष्यः॑। भा॒नुः। आ॒ऽश्ले॒षाः। अय॑नम्। म॒घाः। मे॒॥७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सुहवमग्ने कृत्तिका रोहिणी चास्तु भद्रं मृगशिरः शमार्द्रा। पुनर्वसू सूनृता चारु पुष्यो भानुराश्लेषा अयनं मघा मे ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽहवम्। अग्ने। कृत्तिकाः। रोहिणी। च। अस्तु। भद्रम्। मृगऽशिरः। शम्। आर्द्रा। पुनर्वसु इति पुनःऽवसू। सूनृता। चारु। पुष्यः। भानुः। आऽश्लेषाः। अयनम्। मघाः। मे॥७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(अग्ने)१ हे रोगों को दग्ध करनेवाले जगन्नेता परमेश्वर! आपकी कृपा से (कृत्तिका रोहिणी च) कृत्तिका और रोहिणी काल (सुहवम्) ऋत्वनुकूल उत्तम हवनों अर्थात् यज्ञोंवाला (अस्तु) हो। जिससे (मृगशिरः) मृगशिर नक्षत्रकाल (भद्रम्) सुखदायी हो, और (आर्द्रा) आर्द्रा नक्षत्रकाल (शम्) रोगशामक और शान्तिदायक हो। हे परमेश्वर! आपकी कृपा से (पुनर्वसू) पुनर्वसुओं का काल (सूनृता) प्रिय और सत्य वेदवाणी के स्वाध्याय के अनुकूल हो। (पुष्यः) पुष्य२ नक्षत्रकाल (चारु) हमारे लिए रुचिकर हो। (आश्लेषाः) आश्लेषा नक्षत्रकाल (भानुः) सौर-प्रभा से युक्त हो। और (मघाः)३ मघानक्षत्र काल (मे) मेरे लिए या मेरे सब प्राणियों के लिए (अयनम्) आने-जाने के अनुकूल हो जाए।
टिप्पणी -
[सुहवम् अस्तु=सु (सुफल)+हवः (हवन=आहुतियाँ, यज्ञ)। हवः=An oblation, a sacrifice (आप्टे)। अभिप्राय यह है कि कार्तिक मास से आरम्भ कर, यदि ऋत्वनुकूल ओषधियों द्वारा सब लोग नियमपूर्वक यज्ञ करते रहें, तो भिन्न-भिन्न मासों में ऋतुपरिवर्तन के कारण विकार नहीं होने पाते। इस प्रकार रोगों के अभाव में जीवन सुखमय हो जाता है। कृत्तिका से नक्षत्र-गणना क्यों आरम्भ की गई, इस पर ज्योतिर्विद्याविद् अधिक प्रकाश डाल सकते हैं। कृत्तिकाः के साथ “अग्नि” का सम्बन्ध, आर्द्रा के साथ आर्द्रता की भावना से “वर्षा” का सम्बन्ध, तथा मघाः के साथ “अयन” अर्थात् उत्तरायणान्त (summer solstice) का सम्बन्ध विचारणीय है। मे= मेरे सब प्राणियों के लिए। “अहंभावना” की दृष्टि से “मेरे सब प्राणियों के लिए” यह भावना भी “मे” पद में अन्तर्निहित है। यथा=“अहं सर्वः” अथर्व० १९.५१.१॥] [१. इतात्, अक्तात्, दग्धाद्वा, नीतात् शाकपूणिः। (निरु० ७l४l१४)। २. पुष्य के दो नाम और हैं-तिष्य और सिध्य। ३. मघा के सम्बन्ध में अथर्व० १४।१।१३ मन्त्र निम्नलिखित है- "मघासु हन्यन्ते गावः फल्गुनीषु व्युह्यते" अर्थात् माघ में विवाह के वचन प्रेरित किये जाते हैं, और फाल्गुन में विवाह किये जाते हैं। गौः = वाक् (निघं० १।११); हन्यन्ते = हन गतौ।]