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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 72/ मन्त्र 1
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - परमात्मा देवाश्च
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - परमात्मा सूक्त
यस्मा॒त्कोशा॑दु॒दभ॑राम॒ वेदं॒ तस्मि॑न्न॒न्तरव॑ दध्म एनम्। कृ॒तमि॒ष्टं ब्रह्म॑णो वी॒र्येण॒ तेन॑ मा देवा॒स्तप॑सावते॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मा॑त्। कोशा॑त्। उ॒त्ऽअभ॑राम। वेद॑म्। तस्मि॑न्। अ॒न्तः। अव॑। द॒ध्मः॒। ए॒न॒म्। कृ॒तम्। इ॒ष्टम्। ब्रह्म॑णः। वी॒र्ये᳡ण। तेन॑। मा॒। दे॒वाः॒। तप॑सा। अ॒व॒त॒। इ॒ह ॥७२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मात्कोशादुदभराम वेदं तस्मिन्नन्तरव दध्म एनम्। कृतमिष्टं ब्रह्मणो वीर्येण तेन मा देवास्तपसावतेह ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मात्। कोशात्। उत्ऽअभराम। वेदम्। तस्मिन्। अन्तः। अव। दध्मः। एनम्। कृतम्। इष्टम्। ब्रह्मणः। वीर्येण। तेन। मा। देवाः। तपसा। अवत। इह ॥७२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 72; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(यस्मात्) जिस (कोशात्) परमात्मरूपी खजाने से (वेदम्) वेद को (उद् अभराम) हम ने लिया था, (तस्मिन् अन्तः) उसी के भीतर (एनम्) इसे (अवदध्मः) हम रख देते हैं उसे समर्पित कर देते हैं। क्योंकि (ब्रह्मणः) वेद या परमेश्वर से प्राप्त (वीर्येण) सामर्थ्य द्वारा हमने (इष्टम्) अभीष्ट सिद्ध (कृतम्) कर लिया है। (तेन तपसा) अब उस प्रसिद्ध आध्यात्मिक तप के कारण (देवाः) हे आध्यात्मिक गुरुदेवों! (इह) इस जीवन में (मा अवत) मेरी रक्षा कीजिए।
टिप्पणी -
[मन्त्र के देवता परमात्मा और देव अर्थात् गुरुजन हैं। परमेश्वर के अनुग्रह से हमें वेद की प्राप्ति हुई है। मन्त्र में काण्ड १ से काण्ड १९ तक के वेद का वर्णन है, जिसमें कि अपराविद्या का प्रधानरूप से, और परविद्या का संक्षेपरूप में वर्णन हुआ है। इतने वेदभाग द्वारा अपराविद्या के कर्मों का वर्णन हुआ है, तभी कहा है कि “ताभ्यामुद् धृत्य वेदमथ कर्माणि कृण्महे” (अथर्व० १९.६८.१)। इसमें “कर्माणि कृण्महे” द्वारा अपराविद्या द्वारा निष्पाद्य कर्मों का वर्णन किया है। अपराविद्या द्वारा निष्पादित कर्मों का वर्णन सूक्त ७१ में हुआ है। आयुः, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, द्रविण— ये अपराविद्या द्वारा साध्य कर्म हैं। “ब्रह्मवर्चस” पराविद्यासाध्य है। आयु आदि ६ कर्म हैं, और “ब्रह्मवर्चस” एक कर्म। इसलिए १ से १९ काण्डों में अपराविद्यासाध्य कर्मों का प्राधान्य है, और पराविद्यासाध्य यौगिक उपायों का अप्राधान्य है। “कृतमिष्टम्” द्वारा आयु आदि अभीष्ट फलों की सिद्धि सम्पन्न हो गई। शेष रहती है आध्यात्मिक इष्ठसिद्धि, जिसके लिए आध्यात्मिक गुरुओं से प्रार्थना की गई है। कर्मसाध्य इष्टफलों के लिए एक प्रकार का तप करना होता है, और आध्यात्मिक इष्टफलों की सिद्धि के लिए पूर्ण वैराग्य आदि रूप तप करना होता है। अपराविद्यासाध्य इष्टों के सिद्ध हो जाने पर, इनका साधक १ से १९ काण्ड तक के वेद को परमेश्वरार्पण कर देता है, यह अभिप्राय “अवदध्म एनम्” द्वारा सूचित किया गया है। “तेन वा तपसावतेह” द्वारा आध्यात्मिक तप और तद् द्वारा प्राप्य अभीष्ट सिद्धि के लिए, २० वें काण्ड के परिज्ञान के लिए गुरुओं से प्रार्थना की गई॥१।