अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 8/ मन्त्र 4
सूक्त - गार्ग्यः
देवता - नक्षत्राणि
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त
अ॑नुह॒वं प॑रिह॒वं प॑रिवा॒दं प॑रिक्ष॒वम्। सर्वै॑र्मे रिक्तकु॒म्भान्परा॒ तान्त्सवि॑तः सुव ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒नु॒ऽह॒वम्। प॒रि॒ऽह॒वम्। प॒रि॒ऽवा॒दम्। प॒रि॒ऽक्ष॒वम्। सर्वैः॑। मे॒। रि॒क्त॒ऽकु॒म्भान्। परा॑। तान्। स॒वि॒तः॒। सु॒व॒ ॥८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अनुहवं परिहवं परिवादं परिक्षवम्। सर्वैर्मे रिक्तकुम्भान्परा तान्त्सवितः सुव ॥
स्वर रहित पद पाठअनुऽहवम्। परिऽहवम्। परिऽवादम्। परिऽक्षवम्। सर्वैः। मे। रिक्तऽकुम्भान्। परा। तान्। सवितः। सुव ॥८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 8; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(सवितः) हे सूर्य! तथा हे प्रेरक परमेश्वर! (अनुहवम्) निरन्तर अर्थात् देर तक रहनेवाली खांसी को, (परिहवम्) प्रदेशव्यापी खांसी को, (परिवादम्) ज्वर में होने वाली बकवास को, (परिक्षवम्) प्रदेशव्यापी छींकों और खांसी को, अर्थात् प्रदेशव्यापी प्रतिश्याय को, (सर्वैः) तथा अन्य सब रोगों समेत (मे तान्) मेरे उन रोगों को (रिक्तकुम्भान्) मेरे शरीरघट से रिक्त अर्थात् रेचित करके (परा सुव) सूर्य दूर करे, या हे परमेश्वर! आप दूर कीजिए।
टिप्पणी -
[अनुहवम्— आदि के अर्थ अधिक विचारणीय हैं। मन्त्र में यतः सविता (=सूर्य) का वर्णन है, इसलिए प्रतीत होता है कि शरत्कालीन ज्वर और खांसी जुकाम और ज्वर में प्रलाप करने का वर्णन मन्त्र में हैं। ये रोग ग्रीष्म ऋतु में प्रायः कम होते हैं। इसलिए सूर्य को इन रोगों का निवारक कहा है। रोगों के निवारण में परमेश्वरीय कृपा का भी वर्णन हुआ है। अनुहवम् आदि में “हवम्” का अर्थ है—खांसते हुए आवाज का होना। ह्वेञ् शब्दे।]