अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - भैषज्यम्, आयुः, वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शापमोचन सूक्त
दि॒वो मूल॒मव॑ततं पृथि॒व्या अध्युत्त॑तम्। तेन॑ स॒हस्र॑काण्डेन॒ परि॑ णः पाहि वि॒श्वतः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒व: । मूल॑म् । अव॑ऽततम् । पृ॒थि॒व्या: । अधि॑ । उत्ऽत॑तम् । तेन॑ । स॒हस्र॑ऽकाण्डेन । परि॑ । न॒: । पा॒हि॒ । वि॒श्वत॑: ॥७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवो मूलमवततं पृथिव्या अध्युत्ततम्। तेन सहस्रकाण्डेन परि णः पाहि विश्वतः ॥
स्वर रहित पद पाठदिव: । मूलम् । अवऽततम् । पृथिव्या: । अधि । उत्ऽततम् । तेन । सहस्रऽकाण्डेन । परि । न: । पाहि । विश्वत: ॥७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(दिवः) द्युलोक से (मूलम्) जड़ (अवततम् ) नीचे की ओर फैली है, (पृथिव्याः अधि) और पृथिवी से (उत्ततम् ) ऊपर को फैली है। (तेन) उस (सहस्रकाण्डेन) हजारों ग्रन्वियोंवाले जगत्-वृक्ष द्वारा (विश्वतः) सब प्रकार से (नः पाहि) हमारी रक्षा कर [हे परमेश्वर मातः]।
टिप्पणी -
[यह जगत्-वृक्ष है, अश्वत्थ वृक्ष। यथा "ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्" (गीता १५।१)। वृक्ष की शोभा पत्तों द्वारा होती है, न कि पत्तोंरहित शाखाओं द्वारा। संसार वृक्ष की शोभा वैदिक छन्दों द्वारा होती है। वेदों के बिना संसार शोभारहित है। संसार-वृक्ष का मूल ऊर्व में है। ऊर्ध्व में स्थित नक्षत्र-तारा तथा आदित्य की रश्मियों पर पृथिवी आश्रित है, और ऊर्ध्वस्थ आदित्य से ही प्रकट हुई है। संसार-वृक्ष की ग्रन्थियाँ हैं, संसार वृक्ष के घटक अवयव, जोकि हमारी रक्षा कर रहे हैं।]