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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - भैषज्यम्, आयुः, वनस्पतिः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - शापमोचन सूक्त

    अ॒घद्वि॑ष्टा दे॒वजा॑ता वी॒रुच्छ॑पथ॒योप॑नी। आपो॒ मल॑मिव॒ प्राणै॑क्षी॒त्सर्वा॒न्मच्छ॒पथाँ॒ अधि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒घऽद्वि॑ष्टा । दे॒वऽजा॑ता । वी॒रुत् । श॒प॒थ॒ऽयोप॑नी । आप॑: । मल॑म्ऽइव । प्र । अ॒नै॒क्षी॒त् । सर्वा॑न् । मत् । श॒पथा॑न् । अधि॑ ॥७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अघद्विष्टा देवजाता वीरुच्छपथयोपनी। आपो मलमिव प्राणैक्षीत्सर्वान्मच्छपथाँ अधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अघऽद्विष्टा । देवऽजाता । वीरुत् । शपथऽयोपनी । आप: । मलम्ऽइव । प्र । अनैक्षीत् । सर्वान् । मत् । शपथान् । अधि ॥७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 7; मन्त्र » 1

    भाषार्थ -
    (अघद्विष्टा) पाप से द्वेष अर्थात् अप्रीति करनेवाली, (देवजाता) दिव्य व्यक्तियों में प्रकट हुई, (शपथयोपनी) शपथों से हटानेवाली (वीरुत्) ओषधिरूपी परमेश्वर-माता, (सर्वान् शपथान् ) सब प्रकार के शपथों को (मत् अधि) मुझसे (प्राणैक्षीत) प्रक्षालित करती है, धो देती है, (इव) जैसेकि (मलम्) मल को (आपः) जल प्रक्षालित करते हैं, धो देते हैं।

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