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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
उदु॒ त्ये मधु॑मत्तमा॒ गिर॒ स्तोमा॑स ईरते। स॑त्रा॒जितो॑ धन॒सा अक्षि॑तोतयो वाज॒यन्तो॒ रथा॑ इव ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊं॒ इति॑ । त्ये । मधु॑मत्ऽतमा: । गिर॑: । स्तोमा॑स: । ई॒र॒ते॒ ॥ स॒त्रा॒जित॑: । ध॒न॒ऽसा: । अक्षि॑तऽऊतय: । वा॒ज॒ऽयन्त॑: । रथा॑:ऽइव ॥१०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु त्ये मधुमत्तमा गिर स्तोमास ईरते। सत्राजितो धनसा अक्षितोतयो वाजयन्तो रथा इव ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ऊं इति । त्ये । मधुमत्ऽतमा: । गिर: । स्तोमास: । ईरते ॥ सत्राजित: । धनऽसा: । अक्षितऽऊतय: । वाजऽयन्त: । रथा:ऽइव ॥१०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(उ) निश्चय से (त्ये) वे (मधुमत्तमाः) अत्यन्त मधुर (गिरः) स्तुतिवाणियाँ, तथा (स्तोमासः) सामगान, (उद् ईरते) हम उपासकों के हृदयों से उत्त्थित हो रहे हैं। ये स्तुतिवाणियाँ और सामगान (सत्राजितः) विक्षेपवृत्तियों पर वास्तव में विजय पाते हैं, (धनसाः) आध्यात्मिक विभूतियाँ प्रदान करते हैं, (अक्षितोतयः) इनके द्वारा पाई रक्षाएँ क्षीण नहीं होतीं, और ये (रथाः इव) रथों के सदृश (वाजयन्तः) उद्देश्य की ओर वेग प्रदान करते हैं।