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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
कण्वा॑ इव॒ भृग॑वः॒ सूर्या॑ इव॒ विश्व॒मिद्धी॒तमा॑नशुः। इन्द्रं॒ स्तोमे॑भिर्म॒हय॑न्त आ॒यवः॑ प्रि॒यमे॑धासो अस्वरन् ॥
स्वर सहित पद पाठकण्वा॑:ऽइव । भृग॑व: । सूर्या॑ऽइव । विश्व॑सु । इत् । धी॒तम् । आ॒न॒शु॒: ॥ इन्द्र॑म् । स्तोमे॑भि: । म॒हय॑न्त: । आ॒यव॑: । प्रि॒यमे॑धास: । अ॒स्व॒र॒न् ॥१०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
कण्वा इव भृगवः सूर्या इव विश्वमिद्धीतमानशुः। इन्द्रं स्तोमेभिर्महयन्त आयवः प्रियमेधासो अस्वरन् ॥
स्वर रहित पद पाठकण्वा:ऽइव । भृगव: । सूर्याऽइव । विश्वसु । इत् । धीतम् । आनशु: ॥ इन्द्रम् । स्तोमेभि: । महयन्त: । आयव: । प्रियमेधास: । अस्वरन् ॥१०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(सूर्या इव) सूर्य कि किरणें जिस प्रकार जगत् को शुद्ध करती हैं, इसी प्रकार अपने कायिक ऐन्द्रियिक और मानसिक मलों का (भृगवः) भर्जन करनेवाले तपस्वीजन भी (कण्वा इव) निमीलित-नेत्र होकर ध्यान करनेवाले योगियों के समान (विश्वं धीतम्) ध्यानाभ्यास के सब फलों को (आनशुः) प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु (प्रियमेधासः) उपासनायज्ञों के साथ प्रीति रखनेवाले (आयवः) सर्वसाधारण उपासक जन, (स्तोमेभिः) सामगानों द्वारा (इन्द्रं महयन्तः अस्वरन्) परमेश्वर की महिमा का स्वरपूर्वक गान ही करते रहते हैं।
टिप्पणी -
[धीतम्=ध्यातम्, ध्यानफलम्, आधीतम् अभिप्रेतम् (निरु০ १.३.३) अथवा “धीतम्”=आनन्दरस का पान, जो कि योग द्वारा साध्य होता है। धेट् पाने।]