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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 112/ मन्त्र 3
ये सोमा॑सः परा॒वति॒ ये अ॑र्वा॒वति॑ सुन्वि॒रे। सर्वां॒स्ताँ इ॑न्द्र गच्छसि ॥
स्वर सहित पद पाठये । सोमा॑स: । प॒रा॒ऽवति॑ । ये । अ॒र्वा॒ऽवति॑ । सु॒न्वि॒रे ॥ सर्वा॑न् । तान् । इ॒न्द्र॒ । ग॒च्छ॒सि॒ ॥११२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
ये सोमासः परावति ये अर्वावति सुन्विरे। सर्वांस्ताँ इन्द्र गच्छसि ॥
स्वर रहित पद पाठये । सोमास: । पराऽवति । ये । अर्वाऽवति । सुन्विरे ॥ सर्वान् । तान् । इन्द्र । गच्छसि ॥११२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 112; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(ये) जो (सोमासः) भक्तिरस (परावति) पराविद्यावालों में हैं और (ये) जो भक्तिरस (अर्वावति) अपराविद्यावालों में (सुन्विरे) प्रकट हुए हैं, (इन्द्र) हे परमेश्वर! (तान् सर्वान्) उन सब भक्तिरसों के प्रति आप (गच्छसि) प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी -
[अभिप्राय यह है कि परमेश्वर को स्वाभिमुख करने के लिए विशुद्ध भक्तिरस चाहिए, चाहे वह भक्तिरस पराविद्यावालों में हो, या अपराविद्या वालों में हो।]