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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 112/ मन्त्र 2
यद्वा॑ प्रवृद्ध सत्पते॒ न म॑रा॒ इति॒ मन्य॑से। उ॒तो तत्स॒त्यमित्तव॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वा॒ । प्र॒ऽवृ॒द्ध॒ । स॒त्ऽप॒ते॒ । न । म॒रै॒ । इति॑ । मन्य॑से ॥ स॒तो इति॑ । तत् । स॒त्यम् । इत् । तव॑ ॥११२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वा प्रवृद्ध सत्पते न मरा इति मन्यसे। उतो तत्सत्यमित्तव ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । वा । प्रऽवृद्ध । सत्ऽपते । न । मरै । इति । मन्यसे ॥ सतो इति । तत् । सत्यम् । इत् । तव ॥११२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 112; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(प्रवृद्ध) हे पुराण पुरुष या सद्गुणों में बढ़े हुए! (सत्पते) हे सच्चेरक्षक! (यद् वा) ज्ञानी लोगों द्वारा जो आप (मन्यसे) माने जाते हैं कि आप (न मरा) मरते नहीं कि आप अजर अमर हैं, (उत उ तत्) वह तो (तव) आपके सम्बन्ध में (सत्यम् इत्) सत्य ही है।