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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 113/ मन्त्र 2
तं हि स्व॒राजं॑ वृष॒भं तमोज॑से धि॒षणे॑ निष्टत॒क्षतुः॑। उ॒तोप॒मानां॑ प्रथ॒मो नि षी॑दसि॒ सोम॑कामं॒ हि ते॒ मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । हि । स्व॒ऽराज॑म् । वृ॒ष॒भम् । तम् । ओज॑से । धि॒षणे॒ । इति॑ । नि॒:ऽत॒त॒क्षतु॑: ॥ उ॒त । उ॒प॒ऽमाना॑म् । प्र॒थ॒म: । नि । सी॒द॒सि॒ । सोम॑ऽकामम् । हि । ते॒ । मन॑: ॥११३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तं हि स्वराजं वृषभं तमोजसे धिषणे निष्टतक्षतुः। उतोपमानां प्रथमो नि षीदसि सोमकामं हि ते मनः ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । हि । स्वऽराजम् । वृषभम् । तम् । ओजसे । धिषणे । इति । नि:ऽततक्षतु: ॥ उत । उपऽमानाम् । प्रथम: । नि । सीदसि । सोमऽकामम् । हि । ते । मन: ॥११३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 113; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(स्वराजम्) निज ज्योति द्वारा प्रकाशमान, (वृषभम्) आनन्दरसवर्षी (तं तं हि) उसे और उसे ही (धिषणे) उपर्युक्त दो प्रकार की स्तुति-वाणियाँ, अर्थात् गीतिमयी और गीतिरहित वाणियाँ (ओजसे) हमें ओज प्रदान के लिए (निष्टतक्षतुः) प्रकट कर देती हैं। हे परमेश्वर! तदनन्तर हमें ज्ञान होता है कि आप ही (उपमानाम्) सब उपमाओं में (प्रथमः) सर्वश्रेष्ठ उपमारूप हैं, और आप ही संसार में (नि षीदसि) स्थिर रूप में स्थित हैं। हम यह भी जान गये हैं कि (ते) आपकी (मनः) इच्छा, (हि) निश्चय से, (सोमकामम्) उपासक के भक्तिरस की कामनावाली है।