अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 26/ मन्त्र 2
आ घा॑ गम॒द्यदि॒ श्रव॑त्सह॒स्रिणी॑भिरू॒तिभिः॑। वाजे॑भि॒रुप॑ नो॒ हव॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । घ॒ । ग॒म॒त् । यदि॑ । अव॑त् । स॒ह॒स्रि॒णी॑भि: । ऊ॒तिभि॑: ॥ वाजे॑भि: । उप॑ । न॒: । हव॑म् ॥२६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ घा गमद्यदि श्रवत्सहस्रिणीभिरूतिभिः। वाजेभिरुप नो हवम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । घ । गमत् । यदि । अवत् । सहस्रिणीभि: । ऊतिभि: ॥ वाजेभि: । उप । न: । हवम् ॥२६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 26; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(यदि श्रवत्) यदि परमेश्वर हमारी प्रार्थनाओं को स्वीकार कर लेता है, तो वह (घ) निश्चय से (सहस्रिणीभिः ऊतिभिः) हजारों प्रकार के रक्षा-साधनों के साथ, तथा (वाजेभिः) हजारों प्रकार के बलों समेत (नः) हमारी (हवम्) प्रार्थनाओं के होते (उप) हमारे समीप (आ गमत्) आ उपस्थित होता है।
टिप्पणी -
[श्रद्धा भक्ति तथा आत्मसमर्पणपूर्वक की गई प्रार्थनाओं को परमेश्वर सुनता है। और सुनकर प्रत्यक्ष दर्शन देकर क्षार और बलप्रदान करता है।]