अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 26/ मन्त्र 3
अनु॑ प्र॒त्नस्यौक॑सो हु॒वे तु॑विप्र॒तिं नर॑म्। यं ते॒ पूर्वं॑ पि॒ता हु॒वे ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । प्र॒त्नस्य॑ । ओक॑स: । हु॒वे । तु॒वि॒ऽप्र॒तिम् । नर॑म् ॥ यम् । ते॒ । पूर्व॑म् । पि॒ता । हु॒वे ॥२६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अनु प्रत्नस्यौकसो हुवे तुविप्रतिं नरम्। यं ते पूर्वं पिता हुवे ॥
स्वर रहित पद पाठअनु । प्रत्नस्य । ओकस: । हुवे । तुविऽप्रतिम् । नरम् ॥ यम् । ते । पूर्वम् । पिता । हुवे ॥२६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 26; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(तुविप्रतिम्) सब शक्तियों के प्रतिनिधिरूप, तथा (नरम्) जगत् के नेता परमेश्वर को (प्रत्नस्य) पुराकाल से माने हुए (ओकसः) हृदय-गृह से (अनु) निरन्तर अर्थात् सदा, हे पुत्र! मैं तेरा पिता, (हुवे) तेरी सहायता के लिए बुलाता हूँ। (यम्) जिस परमेश्वर का कि (ते पिता) तेरे पिता मैंने (पूर्वम्) पहले अपने जीवन में (हुवे) आह्वान कर लिया है, प्रत्यक्ष कर लिया है।
टिप्पणी -
[मन्त्र में पिता अपने पुत्र को आश्वासन देता है कि तू जिस योगमार्ग पर आरूढ़ हुआ है, तेरी सफलता के लिए मैं परमेश्वर की सहायता की प्रार्थना करता हूँ। निश्चय जान कि तुझे परमेश्वर की सहायता मिलेगी। क्योंकि मैंने अपने जीवन में इसका अनुभव कर लिया है।]