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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 28/ मन्त्र 3
सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - सूक्त-२८
इन्द्रे॑ण रोच॒ना दि॒वो दृ॒ढानि॑ दृंहि॒तानि॑ च। स्थि॒राणि॒ न प॑रा॒णुदे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रे॑ण । रो॒च॒ना । दि॒व: । दृ॒ह्लानि॑ । दृं॒हि॒तानि॑ । च॒ ॥ स्थि॒राणि॑ । न । प॒रा॒ऽनुदे॑ ॥२८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेण रोचना दिवो दृढानि दृंहितानि च। स्थिराणि न पराणुदे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रेण । रोचना । दिव: । दृह्लानि । दृंहितानि । च ॥ स्थिराणि । न । पराऽनुदे ॥२८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 28; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(इन्द्रेण) परमेश्वर ने (दिवः) मस्तिष्क के सहस्रार-चक्र में प्रकट हुई (दृळनि रोचना) दृढ़ दीप्तियों को (दृंहितानि) और सुदृढ़ कर दिया है, (स्थिराणि) इन्हें स्थिर कर दिया है। (न पराणुदे) अब ये दीप्तियाँ हटाई नहीं जा सकतीं।
टिप्पणी -
[मन्त्र २०.२८.२ के “अर्वाञ्चं नुनुदे”, और मन्त्र २०.२८.३ के “न पराणुदे” में भावसाम्य है। अर्थात् रजस् और तमस्रूपी आवरण को परमेश्वर ने हटा दिया है, और सात्विक प्रकाशों को स्थिर कर दिया है। योगिराज श्री जगन्नाथ पथिक “सन्ध्यायोग” में लिखते हैं कि “नक्षत्रों से भरे गगन के समान भासनेवाला” “सहस्रार-चक्र” है,” पृ০ १६७। मन्त्र का आधिदैविक अर्थ निम्नलिखित है—“परमेश्वर ने द्युलोक के चमकते हुए नक्षत्रों=ताराओं को, जो कि दृढ़ रूप में स्थित हैं, उन्हें खूब दृढ़ कर दिया है। वे द्युलोक में स्थिर हैं, और अपनी-अपनी सापेक्ष स्थिति से विच्युत नहीं होते”।]