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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२८
    46

    इन्द्रे॑ण रोच॒ना दि॒वो दृ॒ढानि॑ दृंहि॒तानि॑ च। स्थि॒राणि॒ न प॑रा॒णुदे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रे॑ण । रो॒च॒ना । दि॒व: । दृ॒ह्लानि॑ । दृं॒हि॒तानि॑ । च॒ ॥ स्थि॒राणि॑ । न । प॒रा॒ऽनुदे॑ ॥२८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रेण रोचना दिवो दृढानि दृंहितानि च। स्थिराणि न पराणुदे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रेण । रोचना । दिव: । दृह्लानि । दृंहितानि । च ॥ स्थिराणि । न । पराऽनुदे ॥२८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 28; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रेण) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] करके (दिवः) व्यवहार के (स्थिराणि) ठहराऊ (रोचना) प्रकाश (न पराणुदे) न हटने के लिये (दृढानि) पक्के किये गये (च) और (दृंहितानि) बढ़ाये गये [फैलाये गये] हैं ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने अपने अटल नियमों से सब संसार को सुख दिया है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(इन्द्रेण) परमैश्वर्यवता परमात्मना (रोचना) रोचनानि। प्रकाशाः (दिवः) व्यवहारस्य (दृढानि) दृह वृद्धौ-क्त। दृढीकृतानि (दृंहितानि) दृहि वृद्धौ-क्त। वर्धितानि। विस्तारितानि (च) (स्थिराणि) स्थितिशीलानि (न) निषेधे (पराणुदे) परा+णुद प्रेरणे-क्विप्। परानोदनाय। दूरे प्रेरणाय ॥

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    विषय

    दिवः दृढानि रोचना

    पदार्थ

    १. (इन्द्रेण) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु से (दिवः) = मस्तिष्करूप धुलोक के (रोचना) = दीप्त ज्ञान नक्षत्र (दृढानि) = बड़े बलवाले [स्थूल] (च) = तथा (इंहितानि) = स्थिर किये जाते हैं। हम प्रभु की उपासना करते हैं, प्रभु हमारे मस्तिष्क में महान् ज्ञान-नक्षत्रों को उदित करते हैं। २. ये सब ज्ञान-नक्षत्र स्थिराणि-स्थिर होते हैं, न पराणुदे-अपनोदनीय-नष्ट करने योग्य नहीं होते। इन ज्ञान-नक्षत्रों की दीप्ति मस्तिष्करूप धुलोक को उज्ज्वल बनाये रखती है।

    भावार्थ

    हम प्रभु की उपासना करते हैं। प्रभु हमारे मस्तिष्करूप धुलोक में स्थिर, सबल ज्ञान-नक्षत्रों को उदित करते हैं।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रेण) परमेश्वर ने (दिवः) मस्तिष्क के सहस्रार-चक्र में प्रकट हुई (दृळनि रोचना) दृढ़ दीप्तियों को (दृंहितानि) और सुदृढ़ कर दिया है, (स्थिराणि) इन्हें स्थिर कर दिया है। (न पराणुदे) अब ये दीप्तियाँ हटाई नहीं जा सकतीं।

    टिप्पणी

    [मन्त्र २०.२८.२ के “अर्वाञ्चं नुनुदे”, और मन्त्र २०.२८.३ के “न पराणुदे” में भावसाम्य है। अर्थात् रजस् और तमस्रूपी आवरण को परमेश्वर ने हटा दिया है, और सात्विक प्रकाशों को स्थिर कर दिया है। योगिराज श्री जगन्नाथ पथिक “सन्ध्यायोग” में लिखते हैं कि “नक्षत्रों से भरे गगन के समान भासनेवाला” “सहस्रार-चक्र” है,” पृ০ १६७। मन्त्र का आधिदैविक अर्थ निम्नलिखित है—“परमेश्वर ने द्युलोक के चमकते हुए नक्षत्रों=ताराओं को, जो कि दृढ़ रूप में स्थित हैं, उन्हें खूब दृढ़ कर दिया है। वे द्युलोक में स्थिर हैं, और अपनी-अपनी सापेक्ष स्थिति से विच्युत नहीं होते”।]

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    विषय

    राजा का कर्त्तव्य

    भावार्थ

    (इन्द्रेण) इन्द्र परमेश्वर ने ही (दिवः) आकाश के (रोचना) कान्तिमान्, उज्वल पिण्ड, ग्रह, नक्षत्र आदि (दृह्लानि) दृढ रूप से (दृंहितानि) स्थिर कर दिये हैं। वे सब मानो (न परानुदे) फिर कभी नष्ट भ्रष्ट न होने के लिये ही (स्थिराणि) स्थिर किये हुए हैं। राजा के पक्ष में—(दिवः रोचना) आनन्दप्रद, सुखकारी समृद्ध राष्ट्र के सभी दीप्ति युक्त भव्य स्थान राजा द्वारा (दृह्लानि दृंहितानि) दृढ पक्के रूप से बनवाये जाते हैं। मानो उनको (न पराणुदे) न टूटने, फूटने के लिये स्थिर किया जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोसूक्त्यश्वसूक्तिना वृषी। १, २ गायत्र्यौ। ३, ४ त्रिष्टुभौ। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    The bright and beautiful, blessed and blissful stars and planets of refulgent space, expansive, firm and constant by virtue of the omnipotence of Indra, no one can shake or dislodge from their position of stability.

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    Translation

    By this mighty air the luminous bodies of heaven are established and held firm. They being secure firmly never deviate from thrir places and paths.

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    Translation

    By this mighty air the luminous bodies of heaven are established and held firm. They being secure firmly never deviate from their places and paths.

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    Translation

    The shining constellations have been well established and secured in the heavens, by the Almighty God. They are so firm and immovable that they defy destruction or ruination.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(इन्द्रेण) परमैश्वर्यवता परमात्मना (रोचना) रोचनानि। प्रकाशाः (दिवः) व्यवहारस्य (दृढानि) दृह वृद्धौ-क्त। दृढीकृतानि (दृंहितानि) दृहि वृद्धौ-क्त। वर्धितानि। विस्तारितानि (च) (स्थिराणि) स्थितिशीलानि (न) निषेधे (पराणुदे) परा+णुद प्रेरणे-क्विप्। परानोदनाय। दूरे प्रेरणाय ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরোপাসনোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্রেণ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান্ পরমাত্মা] দ্বারা (দিবঃ) ব্যবহারের (স্থিরাণি) স্থির/স্থিতিশীল (রোচনা) প্রকাশ (ন পরাণুদে) দূর না হওয়ার জন্য (দৃঢানি) দৃঢ় করা হয়েছে (চ) এবং (দৃংহিতানি) বৃদ্ধি করা [বিস্তৃত করা] হয়েছে ॥৩॥

    भावार्थ

    পরমাত্মা নিজের অটল নিয়ম দ্বারা সমগ্র সংসারকে সুখ প্রদান করেছেন॥৩॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্রেণ) পরমেশ্বর (দিবঃ) মস্তিষ্কের সহস্রার-চক্রে প্রকটিত (দৃল়নি রোচনা) দৃঢ় দীপ্তিকে (দৃংহিতানি) আরও সুদৃঢ় করেছেন, (স্থিরাণি) স্থির করেছেন। (ন পরাণুদে) এখন এই দীপ্তি-সমূহ দূরীভূত করা অসম্ভব।

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