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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    सूक्त - इरिम्बिठिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४

    आ ते॑ सिञ्चामि कु॒क्ष्योरनु॒ गात्रा॒ वि धा॑वतु। गृ॑भा॒य जि॒ह्वया॒ मधु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ते॒ । सि॒ञ्चा॒मि॒ । कु॒क्ष्यो: । अनु॑ । गात्रा॑ । वि । धा॒व॒तु॒ ॥ गृ॒भा॒य । जि॒ह्वया॑ । मधु॑ ॥४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ ते सिञ्चामि कुक्ष्योरनु गात्रा वि धावतु। गृभाय जिह्वया मधु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । ते । सिञ्चामि । कुक्ष्यो: । अनु । गात्रा । वि । धावतु ॥ गृभाय । जिह्वया । मधु ॥४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 4; मन्त्र » 2

    भाषार्थ -
    हे अध्यात्म शिष्य! (ते) तेरी (कुक्ष्योः) दोनों कुक्षियों में, मैं गुरु (आ सिञ्चामि) पूर्णतया भक्तिरस सींचता हूं। (अनु) तत्पश्चात् यह भक्तिरस (गात्रा) तेरे अङ्ग-प्रत्यङ्ग में (विधावतु) दौड़ जाए, शीघ्रतया व्याप्त हो जाए, और तेरे अङ्ग-प्रत्यङ्ग को विशुद्ध कर दे। जैसे कि (जिह्वया गृभाय मधु) जिह्वा द्वारा ग्रहण किया मधु अर्थात् शहद शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में व्याप्त हो जाता है।

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