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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 51/ मन्त्र 2
श॒तानी॑केव॒ प्र जि॑गाति धृष्णु॒या ह॑न्ति वृ॒त्राणि॑ दा॒शुषे॑। गि॒रेरि॑व॒ प्र रसा॑ अस्य पिन्विरे॒ दत्रा॑णि पुरु॒भोज॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तानी॑काऽइव । प्र । जि॒ग॒ति॒ । धृ॒ष्णु॒ऽया । हन्ति॑ । वृ॒त्राणि॑ । दा॒शुषे॑ ॥ गि॒रे:ऽइ॑व । प्र । रसा॑: । अ॒स्य॒ । पि॒न्वि॒रे॒ । दत्रा॑णि । पु॒रु॒ऽभोज॑स: ॥५१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
शतानीकेव प्र जिगाति धृष्णुया हन्ति वृत्राणि दाशुषे। गिरेरिव प्र रसा अस्य पिन्विरे दत्राणि पुरुभोजसः ॥
स्वर रहित पद पाठशतानीकाऽइव । प्र । जिगति । धृष्णुऽया । हन्ति । वृत्राणि । दाशुषे ॥ गिरे:ऽइव । प्र । रसा: । अस्य । पिन्विरे । दत्राणि । पुरुऽभोजस: ॥५१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 51; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(शतानीका इव) सैकड़ों सेनाओं के सदृश परमेश्वर (धृष्णुया) अपनी पराभवकारिणी शक्ति द्वारा (प्र जिगाति) सब पर विजय पाये हुए है। (दाशुषे) आत्मसमर्पक के लिए परमेश्वर उसके (वृत्राणि) अविद्या तथा तज्जन्य आवरणों को (हन्ति) दूर कर देता है। (गिरेः पुरुभोजसः) प्रभूत भोगसामग्री देनेवाले मेघ के (इव) सदृश (अस्य) इस परमेश्वर के (रसाः) आनन्दरस (पिन्विरे) उपासकों को सींचते हैं और इसके (दत्राणि) अन्य दान (पिन्विरे) सबकी सेवाएँ कर रहे हैं। [पिन्विरे=पिवि सेचने; सेवने।]