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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 52/ मन्त्र 2
स्वर॑न्ति त्वा सु॒ते नरो॒ वसो॑ निरे॒क उ॒क्थिनः॑। क॒दा सु॒तं तृ॑षा॒ण ओ॑क॒ आ ग॑म॒ इन्द्र॑ स्व॒ब्दीव॒ वंस॑गः ॥
स्वर सहित पद पाठस्वर॑न्ति । त्वा॒ । सु॒ते । नर॑: । वसो॒ इति॑ । नि॒रे॒के । उ॒क्थिन॑: ॥ क॒दा । सु॒तम् । तृ॒षा॒ण: । ओक॑: । आ । ग॒म॒: । इन्द्र॑ । स्व॒ब्दीऽइ॑व । वंस॑ग: ॥५२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वरन्ति त्वा सुते नरो वसो निरेक उक्थिनः। कदा सुतं तृषाण ओक आ गम इन्द्र स्वब्दीव वंसगः ॥
स्वर रहित पद पाठस्वरन्ति । त्वा । सुते । नर: । वसो इति । निरेके । उक्थिन: ॥ कदा । सुतम् । तृषाण: । ओक: । आ । गम: । इन्द्र । स्वब्दीऽइव । वंसग: ॥५२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 52; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(वसो) हे विश्ववासी! (सुते) भक्तिरस के उत्पन्न हो जाने पर, और सांसारिक वृत्तियों की दृष्टि से (निरेके) चित्त के रिक्त हो जाने पर, शून्य हो जाने पर, (उक्थिनः) वैदिक-सूक्तों द्वारा स्तुतियाँ करनेवाले (नरः) उपासकनेता, (त्वा) आपके प्रति (स्वरन्ति) उच्च-स्वरों में स्तुतियाँ करते हैं, और कहते हैं कि “(इन्द्र) हे परमेश्वर! आप (सुतम्) उत्पन्न भक्तिरस के प्रति (तृषाणः) प्यासे होकर (कदा) कब (ओके) उपासक के हृदय-गृह में (आ गम) आएँगें, (इव) जैसे कि (वंसगः) सुन्दर गतिवाला बैल, पिपासाकुल हुआ-हुआ (स्वब्दी) सुन्दर जलाशय की ओर आता है।
टिप्पणी -
[निरेके=नितरां रिक्त; वा एकान्तस्थाने। स्वब्दि+इव=सु+अप् (जल)+दा (देना)+इ, अर्थात् सुन्दर जल प्रदान करनेवाला जलाशय। स्वब्दि (नपुं सकलिङ्ग)।]