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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
नव॒ यो न॑व॒तिं पुरो॑ बि॒भेद॑ बा॒ह्वोजसा। अहिं॑ च वृत्र॒हाव॑धीत् ॥
स्वर सहित पद पाठनव॑ । य: । न॒व॒तिम् । पुर॑: । बि॒भेद॑ । बा॒हुऽओ॑जसा । अहि॑म् । च॒ । वृ॒त्र॒ऽहा । अ॒व॒धी॒त् ॥७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
नव यो नवतिं पुरो बिभेद बाह्वोजसा। अहिं च वृत्रहावधीत् ॥
स्वर रहित पद पाठनव । य: । नवतिम् । पुर: । बिभेद । बाहुऽओजसा । अहिम् । च । वृत्रऽहा । अवधीत् ॥७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(यः) जिस सूर्यों के सूर्य ने (बाह्वोजसा) निज ओजरूपी बाहुओं द्वारा (नवतिं नव) ९९ (पुरः) पाप-गढ़ों को (बिभेद) छिन्न-भिन्न कर दिया है, उसी परमेश्वर ने, (वृत्रहा) जो कि पापों का विनाशक है, (अहिं च) पाप-सांपों का भी (अवधीत्) वध कर दिया है।
टिप्पणी -
[वृत्रः—वे पाप जिन्होंने जीवनों पर घेरा डाल हुआ है, जो कि प्रकटरूप में जीवनों को घेरे हुए हैं। अहिः—पाप-सांप वे पाप हैं, जो कि संस्काररूप में छिपे पड़े रहते हैं, और प्रकटरूप में उद्बुद्ध नहीं हुए। नवतिनव—ये ९९ पाप-गढ़ निम्नलिखित हैं—५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ, और १ मन (अहंकार) ये ११ प्रमुख पाप-गढ़ हैं। सत्त्व, रजस्, तमस इन तीनों के परस्पर मेल से ३*३=९ भेद होते हैं। उपर्युक्त ११ पाप-गढ़ों के प्रत्येक के ९ भेदों से ९९ पाप-गढ़ होते हैं। इनमें पाप-सांप छिपे पड़े रहते हैं।]