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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
स न॒ इन्द्रः॑ शि॒वः सखाश्वा॑व॒द्गोम॒द्यव॑मत्। उ॒रुधा॑रेव दोहते ॥
स्वर सहित पद पाठस: । न॒: । इन्द्र॑: । शि॒व: । सखा॑ । अश्व॑ऽवत् । गोऽम॑त् । यव॑ऽमत् । उ॒रुधा॑राऽइव । दो॒ह॒ते॒ ॥७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
स न इन्द्रः शिवः सखाश्वावद्गोमद्यवमत्। उरुधारेव दोहते ॥
स्वर रहित पद पाठस: । न: । इन्द्र: । शिव: । सखा । अश्वऽवत् । गोऽमत् । यवऽमत् । उरुधाराऽइव । दोहते ॥७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(सः) वह (इन्द्रः) परमेश्वर (शिवः) कल्याणकारी है वह (नः) हमारा (सखा) वास्तविक सखा है। वह हमें (अश्वावत्) मानसिक (गोमत्) और ऐन्द्रियिक सम्पत्तियों के साथ-साथ (यवमत्) जौ आदि के रूप में शारीरिक सम्पत्तियाँ (उरुधारा इव) महाधाराओं के रूप में (दोहते) प्रदान करता है।
टिप्पणी -
[अश्व=मन। “श्वेताश्वतरोपनिषद्” इस शब्द में कई विचारक “अश्व” का अर्थ मान करके, “अधिकतर सात्विक मनसम्बन्धी उपनिषद्” ऐसा अर्थ करते हैं। मन को ११ वीं इन्द्रिय मान कर, अश्वसमान इन्द्रियों में उसे भी ‘अश्व’ कहा जा सकता है। गौ=इन्द्रियां (उणादि कोष, २.६७, वैदिक यन्त्रालय अजमेर)। अथवा अश्व और गौ इन प्राकृतिक सम्पत्तियों की मांग मन्त्र में की गई है। मनुस्मृति २.९२ में मन को उभयात्मक इन्द्रिय कहा है।]