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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 80/ मन्त्र 2
त्वामु॒ग्रमव॑से चर्षणी॒सहं॒ राज॑न्दे॒वेषु॑ हूमहे। विश्वा॒ सु नो॑ विथु॒रा पि॑ब्द॒ना व॑सो॒ऽमित्रा॑न्सु॒षहा॑न्कृधि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । उ॒ग्रम् । अव॑से । च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म् । राज॑न् । दे॒वेषु॑ । हू॒म॒हे॒ ॥ विश्वा॑ । सु । न॒: । वि॒थु॒रा । पि॒ब्द॒ना । व॒सो॒ इति॑ । अ॒मित्रा॑न् । सु॒ऽसहा॑न् । कृ॒धि॒ ॥८०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामुग्रमवसे चर्षणीसहं राजन्देवेषु हूमहे। विश्वा सु नो विथुरा पिब्दना वसोऽमित्रान्सुषहान्कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । उग्रम् । अवसे । चर्षणिऽसहम् । राजन् । देवेषु । हूमहे ॥ विश्वा । सु । न: । विथुरा । पिब्दना । वसो इति । अमित्रान् । सुऽसहान् । कृधि ॥८०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 80; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(राजन्) हे ब्रह्माण्ड के राजा! (देवेषु) सब देवों में केवल (त्वाम्) आप को ही, (अवसे) आत्मरक्षार्थ (हूमहे) हम पुकारते हैं, क्योंकि आप ही सब देवों में (उग्रम्) सर्वोच्च तथा श्रेष्ठ हैं, और (चर्षणीसहम्) मनुष्यजाति पर आप का ही प्रभाव छाया हुआ है। (वसो) हे विश्ववासीन्! (नः) हमारे लिए आप (सुकृधि) यह सुगमता कर दीजिए कि हम (विथुराः) व्यथादायी, (पिब्दनाः) हमारी शक्तियों को पी जाने में दानव-स्वरूप, (विश्वा अमित्रान्) शत्रुभूत सब कामादि का (सुषहान्) सुगमता से पराभव कर सकें।
टिप्पणी -
[उग्रम् = High, noble (आप्टे)।]