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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
    सूक्त - अथर्वा देवता - वनस्पतिः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - वाजीकरण सूक्त

    आहं त॑नोमि ते॒ पसो॒ अधि॒ ज्यामि॑व॒ धन्व॑नि। क्रम॒स्वर्श॑ इव रो॒हित॒मन॑वग्लायता॒ सदा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒हम् । त॒नो॒मि॒ । ते॒ । पस॑: । अधि॑ । ज्याम्ऽइ॑व । धन्व॑नि । क्रम॑स्व । ऋश॑:ऽइव । रो॒हित॑म् । अन॑वऽग्लायता । सदा॑ ॥४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आहं तनोमि ते पसो अधि ज्यामिव धन्वनि। क्रमस्वर्श इव रोहितमनवग्लायता सदा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अहम् । तनोमि । ते । पस: । अधि । ज्याम्ऽइव । धन्वनि । क्रमस्व । ऋश:ऽइव । रोहितम् । अनवऽग्लायता । सदा ॥४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 7

    भाषार्थ -
    (धन्वनि अधि) धनुष में, अधिरोपित (ज्याम् इक) डोरी के सदृश (ते पसः) तेरी प्रजनन-इन्द्रिय को (अहम्) मैं (आ तनोमि) पूर्णतया तान देती हूं। (अर्शः) मृग (इव) जैसे (रोहितम= रोहित + अम् [द्वितीया विभक्ति का एकवचन] प्रजाविरोहण करनेवाली मृगी की ओर पग बढ़ाता है, वैसे तू (सदा) सदा (अनवग्लायता) ग्लानि-रहित अर्थात् हृष्ट मन के साथ (क्रमस्व) पत्नी की ओर पग बढ़ा।

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