Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 101/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वाङ्नगिरा
देवता - ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - बलवर्धक सूक्त
येन॑ कृ॒षं वा॒जय॑न्ति॒ येन॑ हि॒न्वन्त्यातु॑रम्। तेना॒स्य ब्र॑ह्मणस्पते॒ धनु॑रि॒वा ता॑नया॒ पसः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । कृ॒शम् । वा॒जय॑न्ति । येन॑ । हि॒न्वन्ति॑ । आतु॑रम् । तेन॑ । अ॒स्य । ब्र॒ह्म॒ण॒: । प॒ते॒ । धनु॑:ऽइव । आ । ता॒न॒य॒ । पस॑: ॥१०१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
येन कृषं वाजयन्ति येन हिन्वन्त्यातुरम्। तेनास्य ब्रह्मणस्पते धनुरिवा तानया पसः ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । कृशम् । वाजयन्ति । येन । हिन्वन्ति । आतुरम् । तेन । अस्य । ब्रह्मण: । पते । धनु:ऽइव । आ । तानय । पस: ॥१०१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 101; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(येन) जिस उद्देश्य से (कृशम्) निर्बल को (वाजयन्ति) वाजीकरण द्वारा सबल करते हैं, और (येन) जिस उद्देश्य से (आतुरम्) रोगार्त को (हिन्वन्ति) प्रीणित करते हैं, पोषित करते हैं, (तेन) उस उद्देश्य से (ब्रह्मणस्पते) हे वेद के पति (अस्य) इस प्रजननेन्द्रिय के रोगी को (पसः) जनन-इन्द्रिय को (धनुः इव) धनुष् के सदृश (आ तानय) विस्तारित कर दे, या तान दे।
टिप्पणी -
[पति यदि रोगवश इन्द्रियरोगी हो जाय, और उसकी इन्द्रिय आनुपातिक दृष्टि से ह्रसित हो जाय, तो वेदज्ञ विद्वान् वेदोपदिष्ट विधि से इन्द्रिय को उचित परिमाण से सम्पन्न कर देता है। उद्देश्य है सन्तानोत्पादन और गृहस्थ धर्म का पालन, न कि कामवासना से प्रेरित भोग। हिन्वन्ति= हिवि प्रीणने (भ्वादिः)।]