Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 101

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 101/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वाङ्नगिरा देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - बलवर्धक सूक्त

    आहं त॑नोमि ते॒ पसो॒ अधि॒ ज्यामि॑व॒ धन्व॑नि। क्रम॑स्वर्श॑ इव रो॒हित॒मन॑वग्लायता॒ सदा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒हम् । त॒नो॒मि॒ । ते॒ । पस॑: । अधि॑ । ज्याम्ऽइ॑व । धन्व॑नि । क्रम॑स्व । ऋश॑:ऽइव । रो॒हित॑म् । अन॑वऽग्लायता । सदा॑ ॥१०१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आहं तनोमि ते पसो अधि ज्यामिव धन्वनि। क्रमस्वर्श इव रोहितमनवग्लायता सदा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अहम् । तनोमि । ते । पस: । अधि । ज्याम्ऽइव । धन्वनि । क्रमस्व । ऋश:ऽइव । रोहितम् । अनवऽग्लायता । सदा ॥१०१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 101; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    (अहम्) मैं ब्रह्मणस्पति [मन्त्र २] (ते) तेरी (पस:) प्रजननेन्द्रिय को (आतनोमि) पूर्णतया विस्तारित करता हूं, (धन्वनि अधि) धनुष् पर चढ़ाई (ज्याम् इव) ज्या अर्थात् डोरी के सदृश। (ऋणः) हरिण (इव) जैसे (रोहितम्) हरिणी की ओर, वैसे तू (क्रमस्व) [पत्नी की ओर] पग बढ़ा, (सदा अनवग्लायता) सदा ग्लानिरहित मन से, प्रसन्न चित्त से।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top