Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 118/ मन्त्र 2
उग्रं॑पश्ये॒ राष्ट्र॑भृ॒त्किल्बि॑षाणि॒ यद॒क्षवृ॑त्त॒मनु॑ दत्तं न ए॒तत्। ऋ॒णान्नो॒ नर्णमेर्त्स॑मानो य॒मस्य॑ लो॒के अधि॑रज्जु॒राय॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठउग्रं॑पश्ये॒ इत्युग्र॑म्ऽपश्ये । राष्ट्र॑ऽभृत् । किल्बि॑षाणि । यत् । अ॒क्षऽवृ॑त्तम् । अनु॑ । द॒त्त॒म् । न॒: । ए॒तत् । ऋ॒णात् । न॒: । न । ऋ॒णम् । एर्त्स॑मान: । य॒मस्य॑ । लो॒के । अधि॑ऽरज्जु: । आ । अ॒य॒त् ॥११८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
उग्रंपश्ये राष्ट्रभृत्किल्बिषाणि यदक्षवृत्तमनु दत्तं न एतत्। ऋणान्नो नर्णमेर्त्समानो यमस्य लोके अधिरज्जुरायत् ॥
स्वर रहित पद पाठउग्रंपश्ये इत्युग्रम्ऽपश्ये । राष्ट्रऽभृत् । किल्बिषाणि । यत् । अक्षऽवृत्तम् । अनु । दत्तम् । न: । एतत् । ऋणात् । न: । न । ऋणम् । एर्त्समान: । यमस्य । लोके । अधिऽरज्जु: । आ । अयत् ॥११८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 118; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(उग्रंपश्ये) उग्र अर्थात् ऋतपूर्वक सत्यपूर्वक देखने वाली, (राष्ट्रभृत्= राष्ट्रभृतौ) तथा राष्ट्र का भरण-पोषण करने वाली [अप्सरसौ (मन्त्र १)], (किल्बिषाणि) ऋण सम्बन्धी पापों के (अनु) अनुसार जो पाप हमने किये हैं, और (अक्षवृत्तम्, अनु) न्यायालय सम्बन्धी वर्ताव के अनुसार (यत्) जो ऋण सम्बन्धी पाप हम ने किया है, (नः) हमारे (एतत्) इस पापसम्बन्धी ऋण को (दत्तम्) तुम दोनों उत्तमर्ण को दे दो। (नः) हमारी (ऋणात् एर्त्समानः) ऋणराशि से आक्षिप्त हुई अर्थात् स्वतः प्राप्त तथा शोभा से युक्त (ऋणम्) सूद को चाहता हुआ उत्तमर्ण, (यमस्य) नियन्ता अर्थात् न्यायाधीश के (लोके) न्यायालय में (अधिरज्जुः) हाथ में रज्जु अर्थात् रस्सी ले कर (न आयत्) न आए।
टिप्पणी -
[प्रक्षः= Legal, Procedure, a law suit (आप्टे)। एर्त्समानः = एच्छमानः (सायण)। अथवा ईर क्षेपे (चुरादिः) + तीस भूष अलङ्कारे (चुरादिः) + शप् + मुक् [आने मुक् (अष्ट ० ७।२।८२) + शानच्] क्षेपे= आक्षिप्त१ हुई। उग्रंपश्ये= प्रथमाविभक्ति द्विवचनान्त। राष्ट्रभृत्= राष्ट्रभृतौ। दोनों अप्सराएं फैसले सच्चाई पूर्वक करती हैं, अतः राष्ट्र का भरण-पोषण करती है।] [१. उत्तमर्ण द्वारा दिये गये ऋण और उस पर के सूद को उत्तमर्ण को वापिस कर देना, यह राजकीय नियम तथा सामाजिक प्रथा द्वारा स्वतः सिद्ध है। ]