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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 130/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - स्मरः
छन्दः - विराट्पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - स्मर सूक्त
र॑थ॒जितां॑ राथजिते॒यीना॑मप्स॒रसा॑म॒यं स्म॒रः। देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
स्वर सहित पद पाठर॒थ॒ऽजिता॑म् । रा॒थ॒ऽजि॒ते॒यीना॑म् । अ॒प्स॒रसा॑म् । अ॒यम् । स्म॒र: । देवा॑: । प्र । हि॒णु॒त॒ । स्म॒रम् । अ॒सौ । माम् । अनु॑ । शो॒च॒तु॒ ॥१३०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
रथजितां राथजितेयीनामप्सरसामयं स्मरः। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु ॥
स्वर रहित पद पाठरथऽजिताम् । राथऽजितेयीनाम् । अप्सरसाम् । अयम् । स्मर: । देवा: । प्र । हिणुत । स्मरम् । असौ । माम् । अनु । शोचतु ॥१३०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 130; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(रथजिताम्) शरीर रथ पर विजय पाने वाली, (राथजितेयीनाम्) शरीर रथ पर विजय पाने वालों की सम्बन्धिनी (अप्सरसाम्) रूपवती पत्नियों सम्बन्धी (अयम्) यह (स्मरः) स्मरण या कामवासना है। (देवाः) हे दिव्य शक्तियों ! (स्मरम्) स्मरण या कामवासना को (प्रहिणुत१) प्रेरित या प्रबुद्ध करो (असौ) ताकि वह [मेरा पति] (माम्) मुझ को अर्थात् मेरा (अनु) अनुस्मरण कर (शोचतु) शोकान्वित हो।
टिप्पणी -
[सूक्त १३०, १३१, १३२ में स्मरण या स्मर का वर्णन है। गृह कलह के कारण पति रुष्ट होकर गृह त्याग कर चला गया है, तब उद्गारों का वर्णन इन तीन सूक्तों में किया गया है। वैदिक पत्नियां अपने शरीर रथों पर विजय पाई हुई हैं, और शरीर रथों पर विजय पाएं पतियों की पत्नियां हैं, अतः वे निजपतियों के प्रति ही अनुराग वाली हैं। अतः कारणवश पति वियोग में पति के वापिस आ जाने की कामना करता रहती हैं। रूपवती होती हुई भी पर पुरुष की कामना नहीं करती, ऐसा अभिप्राय इन तीन सूक्तों का है। मन्त्र में "देवाः" का अभिप्राय इन सूक्तों में स्पष्ट हो जायगा। रथ=शरीर "आत्मानं रथिनं बिद्धि शरीर रथमेव तु" (उपनिषद् कठ० अ० १। वल्ली ३। ख० ३)।] [१. सूक्त में देवाः= मरुतः, मानसून वायुएं आदि (सूक्त १३०।४)। कवि सम्प्रदायानुसार वर्षर्तु मे गर्जन तथा तत्सामयिक मोहक दृश्य, स्मरोद्रेक पैदा कर वियोगी पति-पत्नी को व्याकुलित कर उन में सांमनस्य पैदा कर देते हैं। देवाः का अर्थ मादक दृश्य भी है। दिवु क्रीडा मोद “मद" आदि (दिवादिः)।]