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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 129/ मन्त्र 3
यो अ॒न्धो यः पु॑नःस॒रो भगो॑ वृ॒क्षेष्वाहि॑तः। तेन॑ मा भ॒गिनं॑ कृ॒ण्वप॑ द्रा॒न्त्वरा॑तयः ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒न्ध: । य: । पु॒न॒:ऽस॒र: । भग॑: । वृ॒क्षेषु॑ । आऽहि॑त: । तेन॑ । मा॒ । भ॒गिन॑म् । कृ॒णु॒ । अप॑ । द्रा॒न्तु॒ । अरा॑तय: ॥१२९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अन्धो यः पुनःसरो भगो वृक्षेष्वाहितः। तेन मा भगिनं कृण्वप द्रान्त्वरातयः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अन्ध: । य: । पुन:ऽसर: । भग: । वृक्षेषु । आऽहित: । तेन । मा । भगिनम् । कृणु । अप । द्रान्तु । अरातय: ॥१२९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 129; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
हे इन्द्र [विद्युत्] ! (यः) जो (अन्धः भगः) अननरूपी भग अर्थात् ऐश्वर्य, तथा (यः) जो (पुनः सरः) बार-बार सरण करता हुआ आता है, जो (वृक्षेषु) वृक्षों में (आहितः) स्थित होता है, (तेन) उस द्वारा (मा) मुझे (भगिनम्) ऐश्वर्य वाला (कृणु) कर, (अप द्रान्तु अरातयः) अर्थ पूर्ववत् मन्त्र १ ॥
टिप्पणी -
[यह अन्नरूपी भग है, नानाविध फल। ये ऐश्वर्यरूप हैं, और बार-बार सरण करते हुए प्रतिवर्ष वृक्षों पर जाते हैं। वर्ष के पश्चात् आते हैं, अतः इनके आने की गति को सरण करना कहा है। सरण है शनैः-शनैः गति करना, सरकना अन्धः अन्ननामः (निघं० २।७)। अन्धः = "अन" प्राणने + "धा" धारणपोषणयोः जिस द्वारा प्राण का शरीर में धारण होता, और शरीर पुष्ट होता है, वह अन्धस् है फलरूपी अन्न है।]