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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 129/ मन्त्र 2
येन॑ वृ॒क्षाँ अ॒भ्यभ॑वो॒ भगे॑न॒ वर्च॑सा स॒ह। तेन॑ मा भ॒गिनं॑ कृ॒ण्वप॑ द्रा॒न्त्वरा॑तयः ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । वृ॒क्षान् । अ॒भि॒ऽअभ॑व: । भगे॑न । वर्च॑सा । स॒ह । तेन॑ । मा॒ । भ॒गिन॑म् । कृ॒णु॒ । अप॑ । द्रा॒न्तु॒ । अरा॑तय: ॥१२९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
येन वृक्षाँ अभ्यभवो भगेन वर्चसा सह। तेन मा भगिनं कृण्वप द्रान्त्वरातयः ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । वृक्षान् । अभिऽअभव: । भगेन । वर्चसा । सह । तेन । मा । भगिनम् । कृणु । अप । द्रान्तु । अरातय: ॥१२९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 129; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
हे इन्द्र [विद्युत्] (येन, भगेन, वर्चसा, सह) जिस निज ऐश्वर्य और दीप्ति के साथ तू (वृक्षान्) वृक्षों को (अभ्यभवः) अभिभूत, पराभूत करता है, (तेन) उस द्वारा (मा) मुझे (भगिनम्) ऐश्वर्य वाला (कृणु) कर, (अरातयः अपद्रान्तु) अर्थ पूर्ववत् (मन्त्र १)।
टिप्पणी -
[इन्द्र अर्थात् विद्युत् के प्रपात द्वारा जङ्गल जल कर कोइला हो जाते हैं। कोइला ऐश्वर्य रूप है। इस ऐश्वर्य की प्राप्ति से अदान आदि अराति अवगत हो जाते हैं।]