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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 135/ मन्त्र 2
यत्पिबा॑मि॒ सं पि॑बामि समु॒द्र इ॑व संपि॒बः। प्रा॒णान॒मुष्य॑ सं॒पाय॒ सं पि॑बामो अ॒मुं व॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । पिबा॑मि । सम् । पि॒बा॒मि॒ । स॒मु॒द्र:ऽइ॑व । स॒म्ऽपि॒ब: । प्रा॒णान् । अ॒मुष्य॑ । स॒म्ऽपाय॑ । सम् । पि॒बा॒म॒: । अ॒मुम् । व॒यम् ॥१३५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्पिबामि सं पिबामि समुद्र इव संपिबः। प्राणानमुष्य संपाय सं पिबामो अमुं वयम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । पिबामि । सम् । पिबामि । समुद्र:ऽइव । सम्ऽपिब: । प्राणान् । अमुष्य । सम्ऽपाय । सम् । पिबाम: । अमुम् । वयम् ॥१३५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 135; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(यत्) जो (पिबामिः) मैं पीता हूं (सं पिबामि) सम्यक् रूप में पीता हूं, (समुद्रः इव) समुद्र की तरह (सं पिबः) सम्यक् रूप में पीता हूं, (अमुष्य) उस शत्रु के (प्राणान्) प्राणों को (संपाय) सम्यक् रूप में पीकर (वयम्) हम (अमुम्) उसे भी (सं पिबामः) सम्यक् रूप में या मिलकर पी जाते हैं।
टिप्पणी -
[काम, क्रोध, लोभ आदि आध्यात्मिक शत्रुओं के प्राण हैं तत्सम्बन्धी वासनाएं। इन वासनाओं को पीने का अभिप्राय है, इन वासनाओं का भी नियन्त्रण करना, नष्ट करना। इन वासनाओं के नष्ट हो जाने पर इन वासनाओं के विषय स्वतः प्रभावरहित हो जाते हैं, सत्तारहित सदृश हो जाते हैं। यथा "विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते" (गीता)। निराहारस्य= इन्द्रियों द्वारा विषयों का सेवन न करने वाले के विषय निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु इन विषयों के रस प्रर्थात् वासनाए बनी रहती हैं, जिन का विनिवर्तन केवल आध्यात्मिक उपायों द्वारा ही होता है। स पिबः= पिवतेः कर्तरि "शः" + पिबादेशः]