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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 142/ मन्त्र 3
सूक्त - विश्वामित्र
देवता - वायुः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अन्नसमृद्धि सूक्त
अक्षि॑तास्त उप॒सदोऽक्षि॑ताः सन्तु रा॒शयः॑। पृ॒णन्तो॒ अक्षि॑ताः सन्त्व॒त्तारः॑ स॒न्त्वक्षि॑ताः ॥
स्वर सहित पद पाठअक्षि॑ता: । ते॒ ।उ॒प॒ऽसद॑: । अक्षि॑ता: । स॒न्तु॒ । रा॒शय॑: । पृ॒णन्त॑: । अक्षि॑ता: । स॒न्तु॒ । अ॒त्तार॑: । स॒न्तु॒ । अक्षि॑ता: ॥१४२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षितास्त उपसदोऽक्षिताः सन्तु राशयः। पृणन्तो अक्षिताः सन्त्वत्तारः सन्त्वक्षिताः ॥
स्वर रहित पद पाठअक्षिता: । ते ।उपऽसद: । अक्षिता: । सन्तु । राशय: । पृणन्त: । अक्षिता: । सन्तु । अत्तार: । सन्तु । अक्षिता: ॥१४२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 142; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
हे परमेश्वर ! (ते) तेरे (उपसदः) उपासक (अक्षिताः) क्षीण न हों, (राशयः) तेरी सम्पत्ति राशियां (अक्षिताः) क्षीण न हों, (पृणन्तः) तेरे प्रसादार्थ पर-पालक (अक्षिताः) क्षीण न हों, (अत्तारः) तेरे अन्नरूप का भोग करने वाले (अक्षिताः) क्षीण न हों।
टिप्पणी -
[अक्षिताः= संख्या में क्षीण न हों, बहुसंख्यक हों, तथा शक्तिशाली हों। उपसदः= उप + सद:" अर्थात् उपासकः "उप + आसकाः" (आस उपवेशने, अदादिः)। पृणन्तः= पॄ पालने (क्र्यादिः)। अत्तार:= परमेश्वर अन्न१ है और अन्नाद२ है। उपासक उसके अन्नरूप का भोग करते हैं, उस के आनन्द रस का पान करते हैं, यह पान ही अन्नभोग है। प्रलय काल में परमेश्वर जगत् का मानो प्राशन करता है। अतः वह अन्नाद है। तथा "यस्य ब्रह्म व क्षत्रं चोभे भवत ओदनः। मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः" (उपनिषद्)। ब्रह्म क्षत्र" पद उपलक्षक हैं सब प्राणियों और जड़ जगत् के।" तथा यव= कृष्यन्न जौं। पृथिवी में बोया गया यव का बीज अंकुरित हो कर उत्थान करता है। निज तेज या महिमा के कारण बहुसंख्यक यव बीजों का प्रदान करता है। यव इतना पैदा हो जाता है कि कुसूल, कोष्ठ आदि को इतना भर देता है कि यव के दबाव के कारण ये पात्र फटने लगते है (मृणोहि), कविता में वर्णन। दिव्या अशनिः = रुद्र का वज्रपात।] [(१) अहमन्नम् अहमन्तादः (तैत्ति उप० ३।६।१०)। (२) यजुर्वेद ५।२६ में भी "यव" का प्रयोग आध्यात्मिक अर्थ में हुआ है। यथा "यवोऽसि यवयास्मद् द्वेषो यवधारातीः", अर्थात् तू यव है, अमिश्रण करनेवाला है, पृथक् करने वाला है, पृथक कर हम से द्वेष को, पृथक् कर अराती अर्थात अदान भावनाओं को कंजूसी को। "हे मनुष्य तू (यवय) उत्तम गुणों से पदार्थों का मेल कर, तू भी ईर्ष्या आदि दोष वा (अरातीः) शत्रुओं को (यव) दूर कर" (दयानन्द)। तथा "यवानां भागोऽसि अयवानामधिपत्यम्" (यजुः १४।२६), पर भाष्य है "पूर्वमक्षाणां भागोऽसि अयवानामपक्षाणां त्वयि आधिपत्यम्" (महीधर)। इस प्रकार "यव" के भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। अतः प्रकरणानुसार "यव" के अर्थ सूक्त में किये है, जो कि के सब मन्त्रों में एकवाक्यता के उपपादक है।]