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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 142/ मन्त्र 1
सूक्त - विश्वामित्र
देवता - वायुः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अन्नसमृद्धि सूक्त
उच्छ्र॑यस्व ब॒हुर्भ॑व॒ स्वेन॒ मह॑सा यव। मृ॑णी॒हि विश्वा॒ पात्रा॑णि॒ मा त्वा॑ दि॒व्याशनि॑र्वधीत् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । श्र॒य॒स्व॒ । ब॒हु: । भ॒व॒ । स्वेन॑ । मह॑सा । य॒व॒ । मृ॒णी॒हि । विश्वा॑ । पात्रा॑णि । मा । त्वा॒ । दि॒व्या । अ॒शनि॑: । व॒धी॒त् ॥१४२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उच्छ्रयस्व बहुर्भव स्वेन महसा यव। मृणीहि विश्वा पात्राणि मा त्वा दिव्याशनिर्वधीत् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । श्रयस्व । बहु: । भव । स्वेन । महसा । यव । मृणीहि । विश्वा । पात्राणि । मा । त्वा । दिव्या । अशनि: । वधीत् ॥१४२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 142; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(यव) हे मिश्रण तथा अमिश्रण करने वाले !, तथा यव अर्थात् कृषि धान्य जौं की तरह संसार के बीजरूप परमेश्वर ! (उच्छ्रयस्व) तू उत्कृष्ट आश्रयरूप हमारा बन (स्वेन महसा) अपने तेज द्वारा (बहूः भव) बहु प्रकाशमान हो। (विश्वा पात्राणि१) उन सबको जोकि अकेले१ खाते-पीते है (मृणीहि) मार, (दिव्या अशनिः) मेघीय दिव्यवज्रपात् (त्वा) तेरा (मा बधीत्) वध नहीं करता।
टिप्पणी -
[मन्त्र (२) में "आशृण्वन्तं यवं देवम्, वदामसि" द्वारा "यव" को देव तथा सुनने वाला कहा है, और उस के प्रति बोलने अर्थात् कथन करने का भी निर्देश हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि "यव" "चेतन" है, न कि जड़ "जौं"। सायणाचार्य ने भी ऐसा ही मान कर व्याख्या की है। यथा "आभिमूख्येनास्मदुक्तमाकणयन्तं यवं, यवधान्यरूपेण अवस्थितं देवम्"। यव= यु मिश्रणामिश्रणयोः (अदादिः)। किसी भी वस्तु की उत्पत्ति में मिश्रण और अमिश्रण दोनों होते हैं। यव अर्थात् जौं से जब अंकुर की उत्पत्ति होती है तब जौं के साथ मिट्टी, जल आदि का मिश्रण होता है, और जौं के निज तत्वों का अमिश्रण अर्थात् उससे अलग होकर अंकुर रूप में उनका मिश्रण होता है। इस मिश्रण और अमिश्रण का कर्ता परमेश्वर है। इसलिये उसे "यव" कहा है। तथा परमेश्वर संसार के उत्पादन का बीज भी है, कारण भी है। पात्राणि= पा + ष्टन् (उणा० ४।१६०)। पा पाने, पा रक्षणे। जो केवल अपनी ही रक्षा के लिये खाते-पीते हैं। पात्राणि= पातृणि।] [१. मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः “सत्यं ब्रवीमि अध इत्स तस्य"। नार्यमणं पुष्यति नो सखायं, केवलायो भवति केवलादी।। (ऋ० ११।७।६)। तथा " ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् गीता। २. मेघीय दिव्य वज्रपात यवधान्य का तो वध करता है, तुझ परमेश्वर रूप यव का नहीं।]