Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 141/ मन्त्र 3
सूक्त - विश्वामित्र
देवता - अश्विनौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गोकर्णलक्ष्यकरण सूक्त
यथा॑ च॒क्रुर्दे॑वासु॒रा यथा॑ मनु॒ष्या उ॒त। ए॒वा स॑हस्रपो॒षाय॑ कृणु॒तं लक्ष्मा॑श्विना ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । च॒क्रु॒: । दे॒व॒ऽअ॒सु॒रा: । यथा॑ । म॒नु॒ष्या᳡: । उ॒त । ए॒व । स॒ह॒स्र॒ऽपो॒षाय॑ । कृ॒णु॒तम् । लक्ष्म॑ । अ॒श्वि॒ना॒ ॥१४१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा चक्रुर्देवासुरा यथा मनुष्या उत। एवा सहस्रपोषाय कृणुतं लक्ष्माश्विना ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । चक्रु: । देवऽअसुरा: । यथा । मनुष्या: । उत । एव । सहस्रऽपोषाय । कृणुतम् । लक्ष्म । अश्विना ॥१४१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 141; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(यथा) जिस प्रकार (देवासुराः) देव अर्थात् ब्राह्मण तथा असुर= क्षत्रिय और वैश्य (उत) तथा (मनुष्याः) शेष मनुष्य अर्थात् शुद्र (च) कर्णवेध करते रहे हैं (एवा= एवम्) इसी प्रकार (सहस्रपोषाय) कर्णवेध द्वारा हजारों प्रजाजनों की पुष्टि के लिये (अश्विना= अश्विनौ) हे देवों के दो भिषजौ !, दो चिकित्सकों! तुम (लक्ष्म) कर्णवेध चिह्न (कृणुतम्) करो [निज निरीक्षण में]।
टिप्पणी -
[देव पद ब्राह्मणों को सूचित करता है। ब्राह्मणों को "भूदेवाः" तथा "भूसुराः" कहते हैं, अर्थात् पृथिवी के देव। असुराः के दो अर्थ हैं, (१) असु अर्थात् प्राण अर्थात् वल वाले क्षत्रिय तथा, (२) वसु अर्थात् धन वाले वैश्य। यथा "असुरिति प्राणनाम, अस्तः शरीरे भवति, तेन तद्वन्तः असुराः" (निरुक्त ३।२।८) क्षत्रिय। असुराः=वसुराः, धनवन्तः, वैश्याः। असुरत्वम्= वादिलुप्तम्; आादि "व" का लोप (निरुक्त १०।३।३४); "त्वष्टा" पद की व्याख्या में। जब वेदानुयायी चारों वर्ण कर्णवेध संस्कार करते हैं, और कर्णवेध द्वारा नानाविध रोगों के निवर्तन द्वारा शरीर पुष्टि सम्भव है, तब "सहस्रपोषाय" पद सार्थक ही है।]