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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 2/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - सोमः, वनस्पतिः
छन्दः - परोष्णिक्
सूक्तम् - जेताइन्द्र सूक्त
आ यं वि॒शन्तीन्द॑वो॒ वयो॒ न वृ॒क्षमन्ध॑सः। विर॑प्शि॒न्वि मृधो॑ जहि रक्ष॒स्विनीः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । यम् । वि॒शन्ति॑ । इन्द॑व: । वय॑: । न । वृ॒क्षम् । अन्ध॑स: । विऽर॑प्शिन् । वि । मृध॑: । ज॒हि॒ । र॒क्ष॒स्विनी॑: ॥२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यं विशन्तीन्दवो वयो न वृक्षमन्धसः। विरप्शिन्वि मृधो जहि रक्षस्विनीः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । यम् । विशन्ति । इन्दव: । वय: । न । वृक्षम् । अन्धस: । विऽरप्शिन् । वि । मृध: । जहि । रक्षस्विनी: ॥२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(यम्) जिस इन्द्र में (इन्दवः) सोम नामक भक्तिरस (आ विशन्ति) प्रवेश पाते हैं, (न) जैसे कि (अन्धसः वृक्षम्) अन्नवाले वृक्ष में (वय:) पक्षी। वह तू (विरप्शिन्) हे महान् इन्द्र ! (रक्षस्विनीः) राक्षस स्वभाव चाली, (मृधः) तथा संग्रामकारी हमारी दुर्भावनाओं का (विजहि) विशेषतया हनन कर।
टिप्पणी -
[मन्त्र में प्रसिद्ध "देवासुर-संग्राम" का वर्णन अभिप्रेत है। इन्दु द्वारा सोम अभिप्रेत है अर्थात् भक्तिरस, ( मन्त्र १ , देखो) । ये भक्तिरस, ब्राह्मज्ञान दीप्ति को प्रकट करते हैं, यह दर्शाने के लिये इन्हें "इन्दवः" कहा है, इन्धी दोप्तौ (रुधादिः) इन्धी के धकार को दकार छान्दस। तथा "इन्दुरिन्धेरुनत्तेर्वा" (निरुक्त १०।४।४२) तथा भक्तिरस हृदय "उन्दी" अर्थात् क्लिन्न करते हैं। अतः इन्दु हैं। उन्दी क्लेदने (रुधादिः)। विरप्शी महन्नाम (निघं० ३।३)। अन्धः अन्ननाम (निघं २।७)].