अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 27/ मन्त्र 3
सूक्त - भृगु
देवता - यमः, निर्ऋतिः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त
हे॒तिः प॒क्षिणी॒ न द॑भात्य॒स्माना॒ष्ट्री प॒दं कृ॑णुते अग्नि॒धाने॑। शि॒वो गोभ्य॑ उ॒त पुरु॑षेभ्यो नो अस्तु॒ मा नो॑ देवा इ॒ह हिं॑सीत्क॒पोतः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठहे॒ति: । प॒क्षिणी॑ । न । द॒भा॒ति॒ । अ॒स्मान् । आ॒ष्ट्री इति॑ । प॒दम् । कृ॒णु॒ते॒। अ॒ग्नि॒ऽधाने॑ । शि॒व: । गोभ्य॑: । उ॒त । पुरु॑षेभ्य: । न॒: । अ॒स्तु॒ । मा । न॒: । दे॒वा॒: । इ॒ह । हिं॒सी॒त् । क॒पोत॑: ॥२७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
हेतिः पक्षिणी न दभात्यस्मानाष्ट्री पदं कृणुते अग्निधाने। शिवो गोभ्य उत पुरुषेभ्यो नो अस्तु मा नो देवा इह हिंसीत्कपोतः ॥
स्वर रहित पद पाठहेति: । पक्षिणी । न । दभाति । अस्मान् । आष्ट्री इति । पदम् । कृणुते। अग्निऽधाने । शिव: । गोभ्य: । उत । पुरुषेभ्य: । न: । अस्तु । मा । न: । देवा: । इह । हिंसीत् । कपोत: ॥२७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 27; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(हेतिः) प्रेषित हुआ वज्ररूप, (पक्षिणी) अल्प पक्षी की आकृतिवाला वायुयान (अस्मान् ) हमें (न) नहीं (दभाति) हिंसित करता है, (आष्ट्री) ऋषि अर्थात् आयुधरूप वायुयान (अग्निधाने) युद्धाग्नि के निधान रूप संग्राम भूमि में (पदम्) निज चरण को (न) नहीं (कृणुते) स्थापित करता है। (नः) वह हमारी (गोभ्यः) गौओं के लिये ( उत) तथा (पुरुषेभ्यः) पुरुषों के लिये (शिवः) कल्याणकारी ( अस्तु) हो, (देवा:) हे दिव्य अधिकारियो ! (कपोतः ) वायुयान ( इह) यहां अर्थात् हमारे राष्ट्र में (नः) हमें (मा हिंसीत्) न हिसित करे ।
टिप्पणी -
[हेतिः= हि गतौ (स्वादिः), प्रेषित अस्त्ररूप । हेतिः वज्रनाम (निघं. २।२०)। पक्षिणी =अल्पकाय वाला वायुयान, दो पक्षों को फैलाए, उड़ते हुए पक्षी के समान प्रतीत होता है । यह शक्तिशाली परराष्ट्र का वायुयान है जिसमें परराष्ट्र का दूत है, जोकि दूत्यकर्म के लिये हमारे राष्ट्र में आया है, न कि हमारी हिंसा के लिये। ऐसी भावना मन्त्र में प्रकट की है। वायुयान जब भूमि पर उतरते हैं तो निज स्थान में उन्हें ले जाने के लिये उन के पद अर्थात् चरण भी होते हैं। अधिकारियों से कहा है कि तुम इस प्रकार वायुयान के अधिकारियों के साथ वर्ताव करो ताकि वे युद्ध न करने पाएं। आष्ट्रो =ऋष्टि: आयुधम् । यथा "शतमुष्टीरयस्मयोः" (अथर्व० ४।३७।८)। आष्ट्री पद ऋष्टि का ताद्वित प्रयोग प्रतीत होता है ]।