अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
सूक्त - भृगु
देवता - यमः, निर्ऋतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त
परी॒मे॒ग्निम॑र्षत॒ परी॒मे गाम॑नेषत। दे॒वेष्व॑क्रत॒ श्रवः॒ क इ॒माँ आ द॑धर्षति ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । इ॒मे । अ॒ग्निम् । अ॒र्ष॒त॒ । परि॑ । इ॒मे । गाम् । अ॒ने॒ष॒त॒ । दे॒वेषु॑ । अ॒क्र॒त॒ । श्रव॑: । क: । इ॒मान् । आ । द॒ध॒र्ष॒ति॒ ॥२८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
परीमेग्निमर्षत परीमे गामनेषत। देवेष्वक्रत श्रवः क इमाँ आ दधर्षति ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । इमे । अग्निम् । अर्षत । परि । इमे । गाम् । अनेषत । देवेषु । अक्रत । श्रव: । क: । इमान् । आ । दधर्षति ॥२८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 28; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(इमे) ये जो [कपोत संचालक, मन्त्र १] (अग्निम्) यज्ञिय अग्नि को (परि=परितः) पृथिवी के सब ओर (अर्षत) ले गये हैं, ( इमे) ये जो (गाम् परि= परितः) पृथिवी के सब ओर [कपोत= जलीय-यान को] (अनेषत) ले गये हैं । (देवेषु) भिन्न-भिन्न राष्ट्रों के दिव्य अधिकारियों में इन्होंने जो (श्रवः) निज यश ( अक्रत) फैलाया है, (इमान्) इन्हें (क:) कौन (आदधर्षति) पराभूत करेगा।
टिप्पणी -
[यज्ञिय-अग्नि वैदिक संस्कृति की प्रतीक है । यह रोगनाशक, स्वास्थ्य और जोवन को बढ़ाती है । जो इस का प्रकार पृथिवी भर में करते; निज जालीय-यानों का पृथिवी के सब ओर निर्भय हो कर यातायात करते; अन्नसंग्रह करते; पृथिवी के राष्ट्रों में यश प्राप्त करते; उनका कोई नहीं धर्षण कर सकता, न कोई उन्हें पराभूत कर सकता। ञिधृषा प्रागल्भ्ये (स्वादिः), गल्भ धार्ष्ट्ये (भ्वादिः) । धृष प्रसहने (चुरादिः), प्रसहनम् = पराभवः]।