अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
सूक्त - भृगु
देवता - यमः, निर्ऋतिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त
ऋ॒चा क॒पोतं॑ नुदत प्र॒णोद॒मिषं॒ मद॑न्तः॒ परि॒ गां न॑यामः। सं॑लो॒भय॑न्तो दुरि॒ता प॒दानि॑ हि॒त्वा न॒ ऊर्जं॒ प्र प॑दा॒त्पथि॑ष्ठः ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒चा । क॒पोत॑म् । नु॒द॒त॒ । प्र॒ऽनोद॑म् । इष॑म्। मद॑न्त: । परि॑ । गाम् । न॒या॒म॒: । स॒म्ऽलो॒भय॑न्त: । दु॒:ऽइ॒ता । प॒दानि॑ । हि॒त्वा । न॒: । उर्ज॑म् । प्र । प॒दा॒त् ॥२८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋचा कपोतं नुदत प्रणोदमिषं मदन्तः परि गां नयामः। संलोभयन्तो दुरिता पदानि हित्वा न ऊर्जं प्र पदात्पथिष्ठः ॥
स्वर रहित पद पाठऋचा । कपोतम् । नुदत । प्रऽनोदम् । इषम्। मदन्त: । परि । गाम् । नयाम: । सम्ऽलोभयन्त: । दु:ऽइता । पदानि । हित्वा । न: । उर्जम् । प्र । पदात् ॥२८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 28; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
[हे जलीय-यान के चलाने वालो !] (ऋचा) ऋक-प्रोक्त विधि द्वारा (प्रणोदम्) प्रकृष्टतया प्रेरणीय ( कपोतम्) जलीय-यान को (नुदत) प्रेरित करो, चलाओ, (इषम्) अभीष्ट अन्न को प्राप्त कर (मदन्तः) तृप्त तथा हर्षित होते हुए ( गाम् परि =परितः ) पृथिवी के सब ओर ( नयाम:) इस [कपोत को] हम ले जाते हैं, (दुरिता =दुरितानि ) दुष्परिणामी ( पदानि) पदन्यासों को (संलोभयन्तः ) संलुप्त करते हुए । ताकि ( पथिष्ठः ) पथ में स्थित हुआ [कपोत] (नः) हमारे लिये (ऊर्जम्) बलप्रद तथा प्राणप्रद अन्न को (हित्वा) हमारे राष्ट्र में छोड़कर ( प्र पदात् ) शीघ्र पुन: [अन्न प्राप्ति के लिये] चला जाय।
टिप्पणी -
[सूक्त २७ और २८ पृथक्-पृथक् पठित हैं, चाहे विषय कपोत ही है। इसलिये इन भिन्न सूक्तों में कपोत का अभिप्राय भी भिन्न-भिन्न है सूक्त २७ में "पक्षिणी" द्वारा कपोत को अल्पकाय तथा वायुयान रूप कहा है । सूक्त २८ में कपोत अन्नसंग्रह करने के लिये पृथिवी के सब ओर ले जाया जाता है । अतः यह जलीययान है कपोत= क (जल) + पोत(यान) । नुदत=णु प्रेरणे (तुदादिः) । इषम् अन्ननाम (निघं: २।७) । गौ: पृथिवीनाम (निघं. १।१)। मदन्तः= मद तृप्तियोगे; मदी हुर्षे (चुरादिः; भ्वादिः) संलोभयन्त:= जलीय-यान को दुर्गम मार्गों से बचाते हुए। प्रपदात् =प्र + पद (गतौ, दिवादिः)। ऊर्जम= ऊर्ज बलप्राणनयोः (चुरादिः)]।